31 December 2016

हाइकु कविताओं में नया साल

                                  हाइकु कविताओं में नया साल

                                                                               -डा॰ जगदीश व्योम


लो फिर आ गया नया साल, निरन्तरता का सूचक है नया साल । कुछ भी स्थिर नहीं है समूची सृष्टि में । सब चल रहे हैं, और निरन्तर चलते जा रहे हैं, कहाँ जा रहे हैं... किसी को कुछ पता नहीं। हम धरती पर चल रहे हैं, धरती अपने रास्ते पर चल रही है, जाने कब से लगाये जा रही है सूर्य के आस-पास चक्कर पर चक्कर, सूर्य महाराज किसी और की परिक्रमा किये जा रहे हैं। धरती ने अपना एक चक्कर पूरा किया कि हम मग्न हो गए कि लो नया साल आ गया।
उधर काल पुरुष किसी अलौकिक ग्रंथ के पृष्ठ दर पृष्ठ खोलता चला जा रहा है। एक पन्ना खुलता है बहुत हौले से जिसमें अंकित है एक नवगीत पूरी तीन सौ पैंसठ पंक्तियों का जिसे उकेरा है किसी अज्ञात रचनाकार ने । काल पुरुष इसे पढ़कर पलट देता है एक और नया पन्ना, न जाने कब से चल रहा है यह क्रम -
  लो चला वर्ष
नया पृष्ठ खोलेगा
काल पुरुष
-शिवजी श्रीवास्तव
सबकी निगाहें प्रतीक्षारत हैं कि-
चीर के धुंध
आएगा नव वर्ष
उल्लास भरा
-राजीव गोयल
पूरे हुये प्रतीक्षा के ये पल, आ गई उभर कर एक किरन और साथ में खींचकर ले आई नये साल का भारी भरकम ठेला-
साल का ठेला
खींचकर लाई है
नई किरन
-पूर्णिमा वर्मन
किरन केवल साल का ठेला ही खींचकर नहीं लायी है, वह नये संकल्पों की गठरी भी लायी है अपने साथ-
नव संकल्प
सूर्य किरन लाई
धरा मुस्कायी
-सीमा स्मृति
संकल्पों को पूरा करना है तो सोते से जागना भी होगा तभी संकल्प पूरे हो सकेंगे। धरती ने नये साल के रूप में फिर से अँगड़ाई ले ली है, और अब बारी हमारी है कि हम भी आलस को त्याग कर सजग हो जायें अपने कर्तव्य पालन के लिये-
नये साल ने
ले ली है अँगड़ाई
कली मुस्कायी
-ऋता शेखर मधु
और जब-जब धरती अँगड़ाई लेती है तब-तब नई सृष्टि का संचार होता है, आशाओं के अंकुर फूट पड़ते हैं-
अंकुर फूटा
नई आशाएँ लिये
शुभ स्वागत
-भावना सक्सेना
इन नवांकुरों का स्वागत करना है, इन्हें पल्लवित होने के लिए स्वस्थ परिवेश देना है तभी ये नवांकुर पल्लवित और पुष्पित हो सकेंगे। नित नवीनता के प्रति आकर्षण हमारी जन्मजात विशेषता है। कविता में भी नवीनता खोजने की ललक हमेशा से रही है, नयी काव्य विधाओं के रूप में, छन्द के रूप में, कथ्य के रूप में। इसी खोज का सुपरिणाम है दुनिया की सबसे छोटी कविता- हाइकु । हाइकु कविताओं में नये वर्ष की चर्चा होती रही है। इस नव वर्ष के बहाने भी कवि छन्दों में कुछ नया-सा, कुछ मीठा-सा रस घोल सकें ऐसी ही कामना अपने एक हाइकु में शिवजी श्रीवास्तव करते हुए कहते हैं-
नया बरस
छन्दों में घोलें कवि
मीठा रस
-शिवजी श्रीवास्तव
नये वर्ष में कुछ नया हो जो प्रासंगिक हो, ऐसे विचार जो उपयोगी नहीं रह गये हों उन्हें छोड़ देने में ही भलाई है-
नूतन वर्ष
तज जीर्ण विचार
अबकी बार
-ज्योतिर्मयी पन्त
भारतीय संस्कृति की एक विशेषता यह भी है कि यहाँ केवल अपने सुख के लिये प्रार्थना नहीं की जाती है यहाँ तो सबके सुखी जीवन के लिये दुआ माँगी जाती है-
नवीन वर्ष
सबके जीवन में
लाए उत्कर्ष
-प्रदीप कुमार दाश
 नये वर्ष का मानवीकरण भी खूब किया है कवियों ने, कभी उसे राजा कहा है तो कभी सन्त और कभी ऐसा पाहुन जो बार-बार आता रहता है-
पाहुन बन
घूम-घूम के आया
नवल वर्ष
-रमा द्विवेदी
कहते हैं कि वक्त न तो छोटा होता है और न बड़ा, हम अपनी मनःस्थिति के अनुरूप उसकी अनुभूति करते हैं, दुखी व्यक्ति के लिए साल इतना लम्बा हो जाता है कि काटे नहीं कटता और जिनके जीवन में सुख है उनके लिए साल के तीन सौं पैंसठ दिन कब फिसल जाते हैं पता ही नहीं चलता एकदम हथेली में थामे हुए रेत के समान-
फिसल गया
वक्त की हथेली से
रेत-सा साल
-नमिता राकेश
कभी लगता है कि नया साल चुपचाप नहीं आता उसके आने पर शोर होता है ठीक किसी पहाड़ी झरने के समान-
नव वर्ष भी
झरने-सा उतरा
शोर मचाता
-डॉ. सरस्वती माथुर
नये वर्ष में जन-जन के मन में नये-नये सपने जन्म लेते हैं-
स्वप्न धवल
ख्यालों-मुंडेरों सजे
वर्ष नवल
-विभा श्रीवास्तव
नववर्ष का पहला दिन किसी पवित्र ग्रंथ के पहले पृष्ठ के समान लगता है, निर्मल और पावन, हरदीप कौर सन्धु इस प्रथम पृष्ठ को धीरे से खोलने का आह्वान करते हुए कहती हैं-
  धीरे से खोलें
आओ नव वर्ष का
प्रथम पृष्ठ
-डॉ. हरदीप कौर सन्धु
नववर्ष के पृष्ठ को खोलने के बाद संकल्प लेना है कुछ वादों का कुछ इरादों का-
कुछ वादे हैं
बहुत इरादे हैं
नव वर्ष में
-प्रियंका गुप्ता
इन वादों और इरादों को जब हम पूरा कर लेते हैं तब खिलती है इरादों की धूप और फिर नये साल के रूप में उम्मीदों की यही धूप कुछ और संकल्पों की चाह लिये आ जाती है-
फिर से खिली
उम्मीदों वाली धूप
नए साल की
- जेन्नी शबनम
हर एक नया साल एक न एक दिन पुराना हो जाता है और उसके पास कुछ शेष बचता है तो वह है तमाम पुरानी यादें-
पुरानी यादें
पोटली में बांधता
साल पुराना
-अंजली शर्मा
ये पुरानी यादें कभी-कभी ऐसी विभीषिकाओं और आपदाओं को समेटे हुए होती हैं कि दिन जख्मी लगने लगते हैं और तारीखें लाल-
जख्मी से दिन
तारीखें हुयी लाल
साल का हाल
-सविता अशोक अग्रवाल
दुख और आपदाओं को सौगात में देकर जाने वाला साल नये वर्ष में कुछ अच्छा होने का वादा करके विदा होता है शायद यह दुख और त्रासदी उसे भी अच्छी नहीं लगती होगी तभी तो पुराने साल की रात दूब पर ओस के रूप में अपने आँसू टपका कर यही संकेत करती है पूर्णिमा वर्मन के इस हाइकु में इसे महसूस किया जा सकता है-
पुराना साल
रात ने किया विदा
दूब पे अश्रु
-पूर्णिमा वर्मन
कभी-कभी लगता है कि साल किसी बटोही के समान है जो एक पड़ाव पर रुकता है और जाते समय अपनी यादों की पोटली वहीं छोड़ कर चल देता है, यह बात अलग है कि यादों की ये पोटली सभी को अपनी-सी ही लगती है-
बटोही साल
छोड़ गया पोटली
यादों से भरी
-सुनीता अग्रवाल
भले ही जाने वाला हर साल दुख और संत्रास की पोटलियाँ छोड़ता रहता है फिर भी हर किसी को किसी अचीन्हें उल्लास की उम्मीद बनी ही रहती है, यही लगता रहता है दुख और त्रासदी के धुंध को चीर कर नव वर्ष की किरणें सबके जीवन में उल्लास भर देंगीं-
चीर के धुंध
आयेगा नव वर्ष
उल्लास भरा
-राजीव गोयल
नये साल के हाथों में बारह महीनों का बूढ़ा कलेण्डर सौंप कर पुराना साल विदा हो जाता है, उमेश मौर्य के हाइकु में यही भाव देखा जा सकता है-
सौंपता चला
बूढ़ा सा कलेण्डर
नूतन वर्ष
-उमेश मौर्य
एक पीढ़ी अपनी विरासत दूसरी पीढ़ी को सौंप कर विदा लेती है इसी तरह पुराना वर्ष भी अपनी खट्टी-मीठी विरासत को आने वाले नये साल को सौंप कर स्वयं अतीत बन जाता है, योगेन्द्र वर्मा के इस हाइकु में यही संदेश है-
साल पुराना
सौंपता विरासत
नये साल को
-योगेन्द्र वर्मा
वक्त का डाकिया मधु पत्र के रूप में नये वर्ष को लेकर आता है तो चारो ओर खुशी छा जाती है-
काल डाकिया
ले आया मधु पत्र
नये वर्ष का
-शिवजी श्रीवास्तव
आने वाले वर्ष के दिन, महीने कैसे होंगे इसका ताना-बाना पहले से ही काल रूपी जुलाहा बुनकर तैयार कर लेता है-
काल जुलाहा
बुनता ताना-बाना
नवल वर्ष
-ज्योतिर्मयी पन्त
वक्त के जुलाहे ने आने वाले वर्ष के ताने-बाने में क्या बुना है यह तो किसी को नहीं मालूम परन्तु उम्मीद यही रहती है कि सब कुछ अच्छा रहे, हमारा देश खुशहाल रहे, जन-जीवन सुखी रहे, चारो ओर सुख और शांति बनी रहे-
नूतन वर्ष
खुशहाल वतन
सौगात मिले
-शांति पुरोहित
संघर्ष हमारे जीवन का अभिन्न अंग है, बिना संघर्ष के आगे बढ़ना असम्भव है, नये साल में हर संघर्ष पर हमारी विजय होती रहे, सबके लिये ऐसी ही कामना करना एक रचनाकार का धर्म बन जाता है, अरुण आशरी के एक हाइकु में इसे देखा जा सकता है-
नूतन वर्ष
जीतें हर संघर्ष
मिले उत्कर्ष
-अरुण आशरी
सपने देखना और सपनों को साकार करने का प्रयास करना ही जीवन का दूसरा नाम है, नया वर्ष भी जन-जन के मन में अनगिनत सपनों का संचार करता है, सबको सिंदूरी सपने बाँट कर उन्हें साकार करने की मूक प्रेरणा भी देता है, त्रिलोक सिंह ठकुरेला के इस हाइकु में यही भाव दृष्टव्य है-
नये वर्ष में
बाँट दिये सबको
सिन्दूरी स्वप्न
-त्रिलोक सिंह ठकुरेला
दुख के बाद सुख और सुख के बाद दुख का क्रम चलता ही रहता है, बीते साल में होने वाली घटनाओं से दुखी होकर रात दिन रोते रहने से अच्छा है कि खुशियों की परिकल्पना करते हुये जीवन में हर्ष और उल्लास की आशा रखनी चाहिये, नये साल में निश्चय ही सब कुछ अच्छा ही अच्छा होगा हमें यही सकारात्मक सोच रखनी चाहिये-
गम न कर
गुज़रा बीता साल
आएगी ख़ुशी
-गुंजन गर्ग अग्रवाल
और दुख, कुण्ठा, संत्रास का यह कुहासा जो जन-जन के मन पर अप्रत्याशित रूप से छाया हुआ है, वह नये साल में दूर होगा और नये साल के नये सूर्य की नयी किरणें इस कुहासे को चीर कर सुख और शांति की नयी और ताजी धूप जन-जन को समान रूप से बाँट कर इस कुहासे को दूर कर सकेंगी यही कामना है-
कुछ कम हो
शायद ये कुहासा
यही प्रत्याशा
-डा॰ जगदीश व्योम

जापान के अठारहवीं शताब्दी के अद्भुत हाइकु कवि कोबायाशी इस्सा के हाइकु जापान के साहित्यिक इतिहास मे कुछ वैसा ही मुकाम रखते हैं जैसा हिंदुस्तान मे कबीर की साखियों का है। हाइकु के चार स्तंभों मे ’बाशो’, ’बुसोन’ और ’शिकि’ के साथ ही उनका नाम भी शामिल है। अपने जीवन काल मे कोई 20000 हाइकु लिखने वाले इस्सा की लोकप्रियता वक्त से संग बढ़ती ही गयी है। कोबायाशी इस्सा (1763-1827) का 64 साल का जीवन लगातार उथलपुथल से भरा रहा। नये साल पर इस्सा के कुछ हाइकु उनके जीवन की इसी उथल-पुथल का आईना हैं-
साल का पहला सपना
मेरे गाँव का घर
आँसुओं से धुला
-इस्सा

वक्त के आगे मानव जीवन असहाय है, इस्सा बीते वर्ष की अनुभूति को एक हाइकु में व्यक्त करते हुए कहते हैं-
लकड़ी उतराती पानी में
कभी इधर कभी उधर
खतम होता है साल
-इस्सा

गढ़ रही है
साल का पहला आकाश
चाय की भाप
-इस्सा
चाय यहाँ नये साल के उत्सव का भी एक पहलू है। एक मजेदार बात यह भी है कि कवि के तखल्लुस ’इस्सा’ का जापानी मतलब भी चाय-का-कप जैसा कुछ होता है।
शहरी गरीब इलाकों मे रहने की जगह की तंगी अपने हिस्से की जमीन ही नही आसमान को भी छोटा कर देती है, इस्सा को इसका अच्छा तजुर्बा रहा था-
बाड़ से बँधा
कुल तीन हाथ चौड़ा
साल का पहला आकाश
-इस्सा
साल के पहले दिन सूर्य को देखकर इस्सा कहते हैं-
गोदाम के पिछवाड़े
तिरछा चमकता है
साल का पहला सूरज
-इस्सा
अपने घर की दुर्दशा के बहाने इस्सा अपनी आर्थिक खस्ताहाली पर भी व्यंग्य करने से नहीं चूकते हैं-
थोक मे अभिनंदन करता
साल की पहली बारिश का
टपकता हुआ घर
-इस्सा
इस्सा के तीखे हास्यबोध और जिंदगी के प्रति फ़क्कडपन का बेहतरीन उदाहरण है, जहाँ टूटे घर में भी वे ऐसी सकारात्मकता खोज लेते हैं कि जिंदगी से कोई शिकायत न हो-
दीवार मे छेद
कितना सुंदर तो है
मेरे साल का पहला आकाश
-इस्सा


-डा० जगदीश व्योम
बी-12ए / 58ए
धवलगिरि, सेक्टर-34
नोएडा - 201301






14 April 2014

अन्तिम १२ घंटे

[ डा० सत्यभूषण वर्मा के अन्तिम समय का संस्मरणात्मक दस्तावेज जिसे उनकी जीवन संगिनी श्रीमती सुरक्षा वर्मा ने लिखा है। (हाइकु दर्पण, अंक-6 से साभार) ]

-सुरक्षा वर्मा

आज उन्हें साहित्य सम्मेलन में भाग लेने जाना था। कल 12 जनवरी सायं के 7 बजे जब वे घर लौटे तो उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्त्व में कुछ विलक्षणता का आभास था। 
 शारीरिक थकान्‚ श्वास फूलना‚ परन्तु चेहरे की आभा का एक अद्भुत मिश्रण था। सारे दिन क्या हुआ‚ क्या किया‚ समय कैसे व्यतीत हुआ? इसकी चर्चा तो हमारी प्रायः प्रतिदिन होती ही रहती थी‚ परन्तु आज की चर्चा में वे कुछ और उगल देना चाहते थे। जीवन की समस्त संजोई हुई इच्छाएं‚ आकांक्षाएँ‚ संकल्प‚ मानव–पीड़ा‚ मानवता तथा महान भारत के स्वप्न का सम्मिश्रण झलक रहा था। आकांक्षाएँ‚ उन्नति‚ धर्म‚ कूट–नीति‚ भारत एवं विदेशी राजनीति और आर्थिक सम्बंधों की चर्चा प्रारम्भ कर दी। इस समस्त चर्चा से उनकी आन्तरिक उद्विग्नता का आभास होने लगा था। अकस्मात न जाने क्यों उनका ध्यान दार्शनिकता की ओर चल पड़ा। ऐसा लगता था मानो वे किसी गहन समस्या का समाधान खोज रहे हों तथा तुरन्त किसी निष्कर्ष पर पहुँचना चाहते हों। उनका यह रूप मैंने पहले कभी नहीं देखा था। वे तो चिंतन तथा संवेदना का साकार रूप थे। मैं भीतर ही भीतर चिन्तित हो उठी। एक ओर इतनी प्रकाष्ठा की झलक तथा दूसरे ही क्षण उदासीनता की छाया उनके चेहरे पर दिखाई देने लगी। रात्रि के 11 बज चुके थे। श्वास अधिक फूलने लगा था। उनका ध्यान बटोरने के लिए मैंने शतरंज का सहारा लिया। गिट्टियों को अपने–अपने स्थान पर लगा दिया। मेरे इस व्यवहार को देख कुछ मुस्कुरा दिए। मैं भी दो शब्द कहने से चूक न पाई। तुरन्त मुख से शब्द निकल पड़े “हमारी दिनचर्या तो इसके बिना अधूरी ही रह जायगी न ?  देखो घड़ी साढ़े 11 बजा रही है।”  मैं प्रायः शतरंज में उनके पीछे रह जाती थी‚ परन्तु न जाने क्यों उन्होंने आज विजय की पताका मेरे हाथ थमा दी। रात्रि के 12 बज चुके थे। उनकी मानसिक तथा शारीरिक अवस्था को देख मैंने उनसे आग्रह किया कि विश्राम कर लें‚ प्रातः उन्हें सम्मेलन में जाना है। सिर थपथपा कर निद्रा की गोद में उन्हें विश्राम करवा दिया तथा स्वयं भी सोने का नाटक करने लगी। परन्तु मेरा आन्तरिक द्वंद्व मुझे चैन नहीं लेने दे रहा था। उनकी हर बात को गहनता से जितनी भी अधिक‚ झकझोरने का प्रयास करती वह उलझती जाती। न जाने कब आँख लग गई। परन्तु 2 बजे एकाएक मेरा ध्यान इनकी ओर गया। देखकर आश्चर्यचकित रह गई। यह अपने ऑफिस में कम्प्यूटर पर व्यस्त हैं। फिर वही प्रश्नचिह्न मेरे समक्ष खड़ा हो गया। अन्ततः क्या? कौन– सी बेचैनी उन्हें यह सब कुछ करने को बाध्य कर रही है। क्या किसी व्यक्ति ने आज साहित्य–सम्मेलन में इस वस्तु का बोध उन्हें करवाया था कि इन समस्त समस्याओं के समाधान का कारक केवल वही हों। जब मैं इन प्रश्नों से जूझ रही थी कि एकाएक कृष्ण के रूप में इनका चेहरा मेरे समक्ष आकर खड़ा हो जाता है। आभा तथा मुस्कान का सम्मिश्रण मेरी अबोध बुद्धि कुछ न समझ पाई। ऐसा लगता था मानो कि वे इस महान महायुद्ध के ज्ञाता तथा क्राता यही हो। बहुत ही उलझन में मैं पड़ गई। तुरन्त ही अपनी शय्या को त्याग इनके सम्मुख जा खड़ी हुई तथा झुंझला कर प्रश्नों की बौछार लगा दी। वे मौन रह कर मुस्कराते रहे। मेरी खीझ चर्म सीमा को छूने ही वाली थी कि एकाएक वह उठे तथा मुस्कान भरे शब्दों में कहा चलो आराम करते हैं। नींद नहीं आ रही थी सोचा कुछ लिख डालूं। जिस सहजता तथा सरलता से वे बोले कि मेरा समस्त रोष वहीं लुप्त हो गया। प्रातः के 4 बज चुके थे। कुछ थकान का अनुभव होने लगा था। पुनः शय्या का आश्रय ले लिया। इधर–उधर करवट लेते प्रातः 6 बज गए। शौच इत्यादि से निवृत हो पुनः चर्चा प्रारम्भ हो गई। उत्तर प्रतिउत्तर, सम्भवतः वे मुझसे ही समाधान की अपेक्षा चाह रहे हों। अन्ततः समस्त चर्चा का विषय जापान तथा भारत के सम्बंधों तक ही सीमित हो कर रह गई।   
 उनका यह विश्वास था कि यदि भारत स्वयं को पाश्चात्य देशों तक केन्द्रित न कर पूर्व की ओर झांकना प्रारम्भ कर दे तो सम्भवतः भारत एक महान शक्ति बन सकता है और मानव समाज के हित के लिए कुछ कर सकता है। उनके इस प्रश्न से मेरी जिज्ञासा और बढ़ती गई। एकाएक मेरे मन ने यह प्रश्न कर डाला कि जापान ही क्यों अन्य देश क्यों नहीं। तब तो मानो उन्हें कोई भोजन मिल गया हो। तत्काल उत्तर देने के लिए तत्पर हो गए। कह उठे “अबोध स्त्री ! क्या मेरे सम्पर्क में इतने वर्ष व्यतीत करने पर भी तुम मुझे समझ नहीं पाई हो। मेरा विश्लेषण कभी भी भावनात्मक नहीं होता है। मैंने जीवन भर अध्ययन किया है। यदि मुझे अन्य देशों में अधिक रहने का अवसर नहीं प्राप्त हुआ तो क्या उनके विचारों से अनभिज्ञ हूँ? क्या इतिहास नहीं बताता? हमारी सभ्यता संस्कृति‚ विचार‚ आदर्श ज्ञान का सृजन क्या वे देश कर पायेंगे? भौतिकवादियों का मापदण्ड़ तो केवल संहार है। जापान को मैंने बहुत निकटता से देखा है। जीवन का अधिक भाग मैंने वहाँ व्यतीत किया है। उसका बड़ी निकटता से अध्ययन किया है। उनकी परिस्थितियों को समझा है। उनके मूल तत्त्वों का विश्लेषण किया है। जब भी उनके मन्दिरों में गया तो मेरे सम्मुख अपने देवताओं का रूप ही दिखाई दिया। भले ही वे उन्हें भली प्रकार उस सांचे में न ढाल पाये हों। हिरोशिमा की पीड़ा अभी भी जीवित है। हमारा भारत शताब्दियों से जिन पीड़ाओं को सहजता से स्वीकार कर रहा है‚ जापान में वे पीड़ाएं क्रियात्मक रूप से ढल कर अधिक समय तक पल्लिवत नहीं हो पाईं कारण कि उन देशवासियों ने उसका सकारात्मक रूप देकर उनको पनपने नहीं दिया। आक्रामक रूप अपनाकर उन पर विजय पताका लहरा दिया। युद्ध के शब्द से उन्हें घृणा है। धार्मिक रूप से भी वे भारत के बहुत  निकट हैं। वे प्रकृति के उपासक हैं। जन्म को प्रकृति की देन स्वीकार करते हैं। इसे वे “शिन्तो” कह देते हैं तथा प्रकृति की पूजा करते हैं। भारत का मूल आधार तो प्रकृति ही है। अहिंसा के वे पुजारी हैं इसी कारण मूलतः समस्त बुद्ध धर्म के अनुयायी हैं। समय के बदलाव के कारण ईसाई धर्म ने भी अपना स्थान ले लिया है। पूर्व में और कौन–सा ऐसा देश है जो भारत के साथ मिलकर मानव हित के लिए सोच पाएगा। 
 यही चर्चा चल ही रही थी कि हमारे मित्र चाय के लिए आ गए। प्रायः प्रथम दिनचर्या इन मित्रों के संग विचारों के आदान–प्रदान से ही प्रारम्भ होती है। उनके आते ही इनके चेहरे का रंग खिल उठा। ऐसा लगा मानो उन्हें कोई कुबेर के धन की चाबी मिल गई हो। औपचारिकता के उपरान्त वे तुरन्त उठे और ऑफिस की ओर चल दिए। कुछ क्षण पश्चात् उन्होंने सुनामी पर लिखी कविता को सुना डाला। यह उनकी अन्तिम लेखनी थी। जो रात को लिखी थी। उनके जाने के तुरन्त पश्चात् उनके मुख से यह शब्द निकल पड़े कि वे उचिदा जी तथा जॉर्ज फर्नांडीस जी को तुरन्त टेलिफोन पर अपने विचारों से अवगत कराएंगे। समय कम है‚ मुझे शीघ्र पहुंचना है। उनके इन शब्दों को उस समय समझ न पाई। मुझे कहा कि मैं शीघ्र ही स्नान इत्यादि से निवृत्त हो जाऊँ‚ क्योंकि फिर उन्हें जाना है। रात्रि से उनकी उद्विग्नता का कारण सम्भवतः अनुभूति ही हो। जिसका बोध मुझे नहीं होने दिया। 

कुछ समय पश्चात् सब कुछ समाप्त हो गया और मैं किंकर्तव्यविमूढ़ उनको देखती ही रह गई। विधि के विधान की कैसी यह विडम्बना है। कितना महान था उनका व्यक्तित्त्व। जब भी कभी उनके व्यक्तित्त्व का विश्लेषण करने का प्रयत्न करती हूँ तो न जाने कैसे और क्यों वे अनेक रूपों में मेरे सम्मुख आकर खड़े हो जाते हैं तथा मेरी अबोध बुद्धि किसी भी छोर तक पहँुचने में असमर्थ हो जाती है। एक ओर उनका विशाल‚ निष्कपट‚ निश्छल‚ दृढ़संकल्प‚ निष्ठता‚ दया मेरी अंतरात्मा को छूने लगती है और दूसरी ओर उनका पौरुष‚ स्वाभिमान मुस्कराने लगता है। सांसारिक बन्धनों तथा सामाजिक परंपराओं से बिल्कुल विमुख एवं विलग। ऐसा लगता है कि मानो उन्होंने अपने को तथा मुझे दो विभिन्न क्षेत्रों में बाँट कर रख दिया हो। समाज के रीति–रिवाजों तथा सांसारिक व्यवहार की डोर मुझे थमा दी हो तथा स्वयं इन बन्धनों से विमुख हो अपनी कोई राह खोज ली हो। जब भी मैं उनकी गहराइयों में डूबने का प्रयत्न करती तो वे बहिर्मुखी होकर खड़े हो जाते। जब भी मैं उन्हें नास्तिकता का जामा पहनाने का प्रयत्न करती तो उनकी विशाल काया मेरे सम्मुख नृत्य कर उठती ऐसा लगता हो मानो वे धर्म ग्रंथ के स्वयं संचालक हो। उत्तर तथा प्रतिउत्तर में अनेक किंवंदतियों से मेरी जिज्ञासा की पूर्ति कर डालते। जब भी टी०वी० चैनल पर आस्था तथा संस्कार को देखती तो आक्रोश में अपनी आन्तरिक झुंझलाहट का क्रोध कई शब्दों में कर डालते। तुरन्त उनके मुख से एक आह भरे शब्दों में यह वाक्य निकल आते “कैसा है यह ज्ञान‚ धर्म तथा संस्कृति का उपहास। अपने दायित्व से क्यों वंचित हैं यह लोग?” जब भी राजनीति की चर्चा होती तो तुरन्त निर्णायक एवं निष्पक्ष निर्णय दे डालते और दूसरे दिन पत्रिका तथा दैनिक अखबारों में उनके विचारों की चर्चा को देखती तो आश्चर्यचकित हो कर उनको निहारने लगती तथा जिज्ञासु हृदय उनसे यह प्रश्न कर डालता कि क्या तुम्हारी किसी राजनीतिज्ञ अथवा आलोचक से गत दिवस चर्चा हुई थी? वे मुस्कराते हुए उत्तर देते “अरे पगली ! तथ्यों तथा तत्त्वों को जानने के लिए तर्क तथा वितर्क के आधार पर ही स्थिति का विश्लेषण किया जाता है। किसी निर्णय पर पहुंचने से पूर्व स्थितिरूपी समुद्र में डूबने की आवश्यकता होती है। दार्शनिकता‚ धर्म‚ मानव–समाज‚ संस्कृति‚ राजनीति‚ कूटनीति इत्यादि को परखने का अटूट ज्ञान मानो उनमें संचित हो कर रह गया हो। 
 कला तथा प्रकृति के वे पुजारी तो थे ही वे। ऊंची पहाड़ियाँ‚ कंदराएं‚ समुद्र एवं दरिया की लहरों को देखते ही उनका मन उनके शिखर को छूने तथा गहराइयों में डूबने के लिए लालायित हो उठता था। फूजी पहाड़ तथा जमुना की किश्ती उनसे अछूती न रह पाई। तुरन्त उनका भावुक हृदय कुछ गुनगुनाने पर बाध्य हो जाता। प्रकृति तथा नारी की सुन्दरता का भी उनका अपना ही मापदण्ड था। उनको टटोलने के लिए मैं प्रायः चुटकी लेने से पीछे न रहती। कह देती “आपकी जापानी गोपियाँ बहुत सुन्दर हैं।”  झट मुस्कुरा कर कह देते “मूर्ख स्त्री ! सुन्दरता का मापदण्ड केवल श्वेत–वर्ण नहीं है। नारी की सुन्दरता का कुछ और ही मूल्य है। जिस नारी का आकर्षण पुरुष को पागल न कर दे तथा उसकी मधुर वाणी इन्द्रियों को झकझोर न दे तथा पुरुष की पाशविक प्रवृत्तियों को अपनी ज्वाला से भस्म न कर दे वह नारी सुन्दर कैसे हो सकती है?” बुद्धि तथा भावना का अद्भुत सम्मिश्रण। कितने पारखी थे वे। बहुत ही विलक्षण था उनका चरित्र तथा व्यक्तित्त्व। 
 उनके अन्तः स्थल के जिस भी छोर में डूबने का प्रयत्न करती हूँ वहीं स्वयं को असमर्थ‚ निःसहाय तथा अधूरा पाती हूँ। एक दिन अपनी जिज्ञासा रूपी पिपासा को तृप्त करने के लिए मैंने यह प्रश्न कर ही डाला मुझे बताओ आखिर तुम कौन हो और क्या हो? मुस्कराते हुर बड़ी सहजता से कह उठे प्रिय तुम मुझ में और मैं तुम में। फिर यह परिचय कैसा। मुझे किसी प्रकार की परिभाषा का जामा न पहनाओ। भूमण्डल तथा भूखण्ड में स्वतंत्रता से विचरने दो। न जाने कौन–सा जुनून था जो उन्हें अपने स्वास्थ्य तथा विश्राम की चिन्ता से विमुख कर आगे बढ़ने के लिए बाघ्य कर रहा था। समाज से बिल्कुल विलग‚ अपनी ही धुन में खोए रहने वाले ज्ञान के पिपासक। समस्त ज्ञान को अर्जित कर किसी निर्णय पर पहुंचना चाहते थे। वास्तविक रूप में उन्हें जिज्ञासु कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी।

-सुरक्षा वर्मा
            

05 December 2012

हाइकु कैसे लिखें - डॉ० जगदीश व्योम

हिंदी में हाइकु कविता


हिंदी साहित्य की अनेकानेक विधाओं में 'हाइकु' नव्यतम विधा है। हाइकु मूलत: जापानी साहित्य की प्रमुख विधा है। आज हिंदी साहित्य में हाइकु की भरपूर चर्चा हो रही है। हिंदी में हाइकु खूब लिखे जा रहे हैं और अनेक पत्र-पत्रिकाएँ इनका प्रकाशन कर रहे हैं। निरंतर हाइकु संग्रह प्रकाशित हो रहे हैं। यदि यह कहा जाए कि वर्तमान की सबसे चर्चित विधा के रूप में हाइकु स्थान लेता जा रहा है तो अत्युक्ति न होगी।

हाइकु को काव्य-विधा के रूप में प्रतिष्ठा प्रदान की मात्सुओ बाशो (1644-1694) ने। बाशो के हाथों सँवरकर हाइकु 17 वीं शताब्दी में जीवन के दर्शन से अनुप्राणित होकर जापानी कविता की युग-धारा के रूप में प्रस्फुटित हुआ। आज हाइकु जापानी साहित्य की सीमाओं को लाँघकर विश्व-साहित्य की निधि बन चुका है।

हाइकु अनुभूति के चरम क्षण की कविता है। सौंदर्यानुभूति अथवा भावानुभूति के चरम क्षण की अवस्था में विचार, चिंतन और निष्कर्ष आदि प्रक्रियाओं का भेद मिट जाता है। यह अनुभूत क्षण प्रत्येक कला के लिए अनिवार्य है। अनुभूति का यह चरम क्षण प्रत्येक हाइकु कवि का लक्ष्य होता है। इस क्षण की जो अनुगूँज हमारी चेतना में उभरती है, उसे जिसने शब्दों में उतार दिया, वह एक सफल हाइकु की रचना में समर्थ हुआ। बाशो ने कहा है, "जिसने जीवन में तीन से पाँच हाइकु रच डाले, वह हाइकु कवि है। जिसने दस हाइकु की रचना कर डाली, वह महाकवि है।" -प्रो. सत्यभूषण वर्मा, जापानी कविताएँ, पृष्ठ-22)
हाइकु कविता को भारत में लाने का श्रेय कविवर रवींद्र नाथ ठाकुर को जाता है।
"भारतीय भाषाओं में रवींद्रनाथ ठाकुर ने जापान-यात्रा से लौटने के पश्चात 1919 में 'जापानी-यात्री' में हाइकु की चर्चा करते हुए बंगला में दो कविताओं के अनुवाद प्रस्तुत किए। वे कविताएँ थीं -
पुरोनो पुकुर / ब्यांगेर लाफ / जलेर शब्द।
 तथा 
पचा डाल / एकटा को / शरत्काल।
दोनों अनुवाद शाब्दिक हैं और बाशो की प्रसिद्ध कविताओं के हैं।"  -(प्रो. सत्यभूषण वर्मा, जापानी कविताएँ, पृष्ठ-29)

हाइकु कविता आज विश्व की अनेक भाषाओं में लिखी जा रही हैं तथा चर्चित हो रही हैं। प्रत्येक भाषा की अपनी सीमाएँ होती हैं,  अक्षरों की अपनी व्यवस्था होती है और अपना छंद विधान होता है, इसी के अनुरूप उस भाषा के साहित्य की रचना होती है। हिंदी देवनागरी लिपि में लिखी जाती है। यह लिपि वैज्ञानिक लिपि है और(अपवाद को छोड़कर) जो कुछ लिखा जाता है वही पढ़ा जाता है। हाइकु के लिए हिंदी बहुत ही उपयुक्त भाषा है।

हाइकु सत्रह (17) अक्षर में लिखी जाने वाली सबसे छोटी कविता है। इसमें तीन पंक्तियाँ रहती हैं। प्रथम पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी में 7 और तीसरी में 5 अक्षर रहते हैं। संयुक्त अक्षर को एक अक्षर गिना जाता है, जैसे 'सुगन्ध' में तीन अक्षर हैं - सु-1, ग-1, न्ध-1) तीनों वाक्य अलग-अलग होने चाहिए। अर्थात एक ही वाक्य को 5,7,5 के क्रम में तोड़कर नहीं लिखना है। बल्कि तीन पूर्ण पंक्तियाँ हों।

अनेक हाइकुकार एक ही वाक्य को 5-7-5 वर्ण क्रम में तोड़कर कुछ भी लिख देते हैं और उसे हाइकु कहने लगते हैं। यह ग़लत है, और हाइकु के नाम पर स्वयं को धोखे में रखना मात्र है। अनेक पत्रिकाएँ ऐसे हाइकुओं को प्रकाशित कर रही हैं। यह इसलिए कि इन पत्रिकाओं के संपादकों को हाइकु की समझ न होने के कारण ऐसा हो रहा है। इससे हाइकु कविता को तो हानि हो ही रही है, साथ ही जो अच्छे हाइकु लिख सकते हैं, वे भी काफ़ी समय तक भ्रमित होते रहते हैं।

हाइकु कविता में 5-7-5 अक्षर क्रम का अनुशासन तो रखना ही है, क्योंकि यह नियम शिथिल कर देने से छंद की दृष्टि से अराजकता की स्थिति आ जाएगी। कोई कुछ भी लिखेगा और उसे हाइकु कहने लगेगा। वैसे भी हिंदी में इतने छंद प्रचलित हैं, यदि 5-7-5 में नहीं लिख सकते तो फिर मुक्त छंद में अपनी बात कहिए, क्षणिका के रूप में कहिए उसे 'हाइकु' ही क्यों कहना चाहते हैं? अर्थात हिंदी हाइकु में 5-7-5 वर्ण का पालन होता रहना चाहिए यही हाइकु के हित में हैं।

अब एक बात और कि- 5-7-5  वर्ण के अनुशासन का पूरी तरह से पालन किया और मात्र 5-7-5 वर्णों में कुछ भी ऊल-जलूल कह देने को क्या हाइकु कहा जा सकता है? साहित्य की थोड़ी-सी भी समझ रखने वाला यह जानता है कि किसी भी विधा में लिखी गई कविता की पहली और अनिवार्य शर्त उसमें 'कविता' का होना है। यदि उसमें से कविता ग़ायब है और छंद पूरी तरह से सुरक्षित है तो भला वह छंद किस काम का ।
यह भी देखने में आया है कि हाइकु के नाम पर- हाइकु गीत, हाइकु गजल, हाइकु रुबाई, हाइकु मुक्तक, हाइकु नवगीत, हाइकु दोहा, हाइकु चौपाई आदि आदि लिख रहे हैं, यह हाइकु के नाम पर भ्रम फैलाना है और स्वयं को धोखे में रखना है, कुछ पत्रिकाएँ भी इस तरह की हाइकु के नाम पर लिखी तथाकथित कविताओं को छाप देती हैं जो उचित नहीं है, किसी एक छन्द को किसी दूसरे छन्द में लिखने का औचित्य भला क्या हो सकता है ? जो रचनाकार हाइकु लिखना चाहते हैं उन्हें इन सबसे सावधान रहने की आवश्यकता है।

हाइकु साधना की कविता है। किसी क्षण विशेष की सघन अनुभूति कलात्मक प्रस्तुति हाइकु है। प्रो. सत्यभूषण वर्मा के शब्दों में-
"आकार की लघुता हाइकु का गुण भी है और यही इसकी सीमा भी। अनुभूति के क्षण की अवधि एक निमिष, एक पल अथवा एक प्रश्वास भी हो सकता है। अत: अभिव्यक्ति की सीमा उतने ही शब्दों तक है जो उस क्षण को उतार पाने के लिए आवश्यक है। हाइकु में एक भी शब्द व्यर्थ नहीं होना चाहिए। हाइकु का प्रत्येक शब्द अपने क्रम में विशिष्ट अर्थ का द्योतक होकर एक समन्वित प्रभाव की सृष्टि में समर्थ होता है। किसी शब्द को उसके स्थान से च्युत कर अन्यत्र रख देने से भाव-बोध नष्ट हो जाएगा। हाइकु का प्रत्येक शब्द एक साक्षात अनुभव है। कविता के अंतिम शब्द तक पहुँचते ही एक पूर्ण बिंब सजीव हो उठता है।"
(प्रो. सत्यभूषण वर्मा, जापानी कविताएँ, पृष्ठ-27 )

थोड़े शब्दों में बहुत कुछ कहना आसान नहीं है। हाइकु लिखने के लिए बहुत धैर्य की आवश्यकता है। एक बैठक में थोक के भाव हाइकु नहीं लिखे जाते, हाइकु के नाम पर कबाड़ लिखा जा सकता है। यदि आप वास्तव में हाइकु लिखना चाहते हैं तो हाइकु को समझिए, विचार कीजिए फिर गंभीरता से हाइकु लिखिए। निश्चय ही आप अच्छा हाइकु लिख सकेंगे। यह चिंता न कीजिए कि जल्दी से जल्दी मेरे पास सौ-दो सौ हाइकु हो जाएँ और इन्हें पुस्तक के रूप में प्रकाशित करा लिया जाए। क्योंकि जो हाइकु संग्रह जल्दबाजी में प्रकाशित कराए गए हैं, वे कूड़े के अतिरिक्त भला और क्या है? इसलिए आप धैर्य के साथ लिखते रहिए जब उचित समय आएगा तो संग्रह छप ही जाएगा। यदि आप में इतना धैर्य है तो निश्चय ही आप अच्छे हाइकु लिख सकते हैं। प्राय: यह देखा गया है कि जो गंभीर साहित्यकार हैं वे किसी भी विधा में लिखें, गंभीरता से ही लिखते हैं। हाइकु के लिए गंभीर चिंतन चाहिए, एकाग्रता चाहिए और अनुभूति को पचाकर उसे अभिव्यक्त करने के लिए पर्याप्त धैर्य चाहिए।

हिंदी साहित्य का एक दुर्भाग्य और है कि अनेक ऐसे लोग आ गए हैं जिनका कविता या साहित्य से कुछ भी लेना-देना नहीं है। जब हाइकु का नाम ऐसे लोगों ने सुना तो इन्हें सबसे आसान यही लगा, क्योंकि 5-7-5 में कुछ भी कहकर हाइकु कह दिया। अपना पैसा लगाकर हाइकु संग्रह छपवा डाले। यहाँ तक तो ठीक है क्योंकि अपना पैसा लगाकर कोई कुछ भी छपवाए, भला उसे रोकने वाला कौन है। लेकिन जब पास-पड़ोस के नई पीढ़ी के नवोदित हाइकुकार इनसे मिले उन्होंने, उन्हें भी अपने साथ उसी कीचड़ में खींच लिया। उनसे भी रातों-रात हज़ारों हाइकु लिखवा डाले और भूमिकाएँ स्वयं लिख लिखकर भूमिका लेखक की अपूर्ण अभिलाषा को तृप्त कर डाला। और हाइकु या अन्य विधा की एक बड़ी संभावना की भ्रूणहत्या कर डाली।
नए प्रतिभाशाली हाइकुकारों को ऐसे लोगों से बचने की आवश्यकता है। हाइकु लिखते समय यह देखें कि उसे सुनकर ऐसा लगे कि दृश्य उपस्थित हो गया है, प्रतीक पूरी तरह से खुल रहे हैं, बिंब स्पष्ट है, हाइकु को सुनकर उस पर कोई चित्र बनाया जा सकता है। हाइकु लिखने के बाद आप स्वयं उसे कई बार पढ़िए, यदि आपको अच्छा लगता है तो निश्चय ही वह एक अच्छा हाइकु होगा ही।
हाइकु काव्य का प्रिय विषय प्रकृति रहा है। हाइकु प्रकृति को माध्यम बनाकर मनुष्य की भावनाओं को प्रकट करता है। हिंदी में इस प्रकार के हाइकु लिखे जा रहे हैं। परंतु अधिकांश हिंदी हाइकु में व्यंग्य दिखाई देता है। व्यंग्य हाइकु कविता का विषय नहीं है। परंतु जापान में भी व्यंग्य परक काव्य लिखा जाता है। क्योंकि व्यंग्य मनुष्य के दैनिक जीवन से अलग नहीं है। जापान में इसे हाइकु न कहकर 'सेर्न्यू' कहा जाता है। हिंदी कविता में व्यंग्य की उपस्थिति सदैव से रही है। इसलिए इसे हाइकु से अलग रखा जाना बहुत कठिन है। इस संदर्भ में कमलेश भट्ट 'कमल' का विचार उचित प्रतीत होता है -
"हिंदी में हाइकु और 'सेर्न्यू' के एकीकरण का मुद्दा भी बीच-बीच में बहस के केंद्र में आता रहता है। लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि हिंदी में हाइकु और 'सेर्न्यू' दोनों विधाएँ हाइकु के रूप में ही एकाकार हो चुकी है और यह स्थिति बनी रहे यही हाइकु विधा के हित में होगा। क्योंकि जापानी 'सेर्न्यू' को हल्के-फुल्के अंदाज़ वाली रचना माना जाता है और हिंदी में ऐसी रचनाएँ हास्य-व्यंग्य के रूप में प्राय: मान्यता प्राप्त कर चुकी हैं। अत: हिंदी में केवल शिल्प के आधार पर 'सेर्न्यू' को अलग से कोई पहचान मिल पाएगी, इसमें संदेह है। फिर वर्ण्य विषय के आधार पर हाइकु को वर्गीकृत/विभक्त करना हिंदी में संभव नहीं लग रहा है। क्योंकि जापानी हाइकु में प्रकृति के एक महत्वपूर्ण तत्व होते हुए भी हिंदी हाइकु में उसकी अनिवार्यता का बंधन सर्वस्वीकृत नहीं हो पाया है। हिंदी कविता में विषयों की इतनी विविधता है कि उसके चलते यहाँ हाइकु का वर्ण्य विषय बहुत-बहुत व्यापक है। जो कुछ भी हिंदी कविता में हैं, वह सबकुछ हाइकु में भी आ रहा है। संभवत: इसी प्रवृत्ति के चलते हिंदी की हाइकु कविता कहीं से विजातीय नहीं लगती।"
(कमलेश भट्ट कमल, 'हिंदी हाइकु : इतिहास और उपलब्धि' - संपादक- डॉ. रामनारायण पटेल 'राम' पृष्ठ-४२)

हिंदी में हाइकु को गंभीरता के साथ लेने वालों और हाइकुकारों की लंबी सूची है। इनमें प्रोफेसर सत्यभूषण वर्मा का नाम अग्रणी हैं। डॉ. वर्मा ने हाइकु को हिंदी में विशेष पहचान दिलाई है। वे पूरी तत्परता के साथ इस अभियान में जुड़े रहे "हाइकु" नाम से लघु पत्र निकाल कर हाइकु को डा० वर्मा ने गति प्रदान की।  कमलेश भट्ट 'कमल' ने हाइकु-1989,   हाइकु-1999, हाइकु-2009 तथा हाइकु-2019 का संपादन किया जो हाइकु के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य माना जाता है। डॉ. भगवत शरण अग्रवाल ने "हाइकु भारती" पत्रिका का संपादन किया और हाइकु पर गंभीर कार्य कर रहे हैं। प्रो. आदित्य प्रताप सिंह हाइकु को लेकर काफ़ी गंभीर रहे और हिंदी हाइकु की स्थिति को सुधारने की दिशा में चिंतित रहे। उनके अनेक लेख प्रकाशित हो चुके हैं। "हाइकु दर्पण" पत्रिका का संपादन डॉ० जगदीश व्योम कर रहे हैं, यह पत्रिका हाइकु की महत्वपूर्ण पत्रिका तथा हाइकु की सम्पूर्ण पत्रिका है। डॉ० रामनारायण पटेल 'राम' ने 'हिंदी हाइकु : इतिहास और उपलब्धियाँ' पुस्तक का संपादन किया है। इस पुस्तक में हाइकु पर अनेक गंभीर लेख हैं। लखनऊ विश्वविद्यालय से डा० कस्र्णेश भट्ट ने हाइकु पर शोधकार्य किया है। हाइकुकारों में इस समय लगभग 450 से भी अधिक हाइकुकार हैं जो गंभीरता के साथ हाइकु लिख रहे हैं। यह संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है।
हाइकु दर्पण पत्रिका वेब पर भी उपलब्ध है-
 www.haikudarpan.blogspot.com
 हाइकु कोश-
www.haikukosh.blogspot.com  पर हाइकु पढ़े जा सकते हैं।

जिन हाइकुकारों के हाइकु प्राय: चर्चा में रहते हैं उनमें प्रमुख हैं - डॉ. सुधा गुप्ता, डॉ. शैल रस्तोगी, कमलेश भट्ट 'कमल', डॉ. रमाकांत श्रीवास्तव, डॉ. आदित्य प्रताप सिंह, डॉ. गोपाल बाबू शर्मा, डॉ. राजन जयपुरिया, डॉ. सुरेंद्र वर्मा, डॉ. जगदीश व्योम, नीलमेन्दु सागर, रामनिवास पंथी, आदि हैं।
कुछ हाइकु दृष्टव्य हैं। डॉ. सुधा गुप्ता हाइकु में पूरा दृश्य उपस्थित कर देती हैं -
माघ बेचारा / कोहरे की गठरी / उठाए फिरे।
शैतान बच्ची / मौलसिरी के पेड़ / चढ़ी है धूप।
चिड़िया रानी / चार कनी बाजरा / दो घूँट पानी।
    
कमलेश भट्ट 'कमल' के हाइकु पूरी तरह से खुलते हैं और अपना प्रभाव छोड़ते हैं-
लेता ही रहा / रात भर डकारें / अघाया फ्रिज ।
सूर्य जिन्दा है / धुंध के उस पार / निराशा कैसी ।
    
प्रकृति के किसी क्षण को देखकर उसका मानवीकरण डॉ. शैल रस्तोगी ने कितनी कुशलता से किया है -
कमर बँधी / मूँगे की करधनी / परी है उषा।
  गौरैया ढूँढ़े / अपना नन्हा छौना / धूल ढिठौना।
मैया री मैया / पहुना मेघ आए / कहाँ बिठाऊँ? 
रूप निहारे / मुग्धा नायिका झील / चाँद कंदील।
      
निरंतर छीजती जा रही लोक संस्कृति और उजड़ते जा रहे ग्राम्य संस्कृति को लेकर भी हाइकुकार चिंतित हैं। डॉ. गोपालबाबू शर्मा के शब्दों में-
तपती छाँव / पनघट उदास / कहाँ वे गाँव? 
अब तो भूले / फाग, राग, कजरी / मल्हार, झूले।   
      
वर्तमान समय में धैर्य के साथ-साथ साहस की भी आवश्यकता है और एकाकीपन व्यक्ति को दार्शनिक चिंतन की ओर ले जाता है- इन भावों को व्यक्त करते हैं निम्नलिखित हाइकु-
नभ की पर्त / चीर गई चिड़िया / देखा साहस।
-मदनमोहन उपेंद्र

साँझ की बेला / पंछी ऋचा सुनाते / मैं हूँ अकेला!
-रामेश्वर कांबोज 'हिमांशु'
      
युद्ध की विभीषिका कितनी भयावह होती है इसे भुक्तभोगी ही जानते हैं। प्रकृति के प्रकोप को भी व्यक्त करना असंभव है। व्यक्ति को सँभलने का अवसर ही नहीं मिलता, चाहे वह गुजरात का भूकंप हो या त्सुनामी लहरों का कहर। लेकिन व्यक्ति को जीना तो होगा ही, और जीने का हौसला भी रखना होगा। भले ही सब कुछ उजड़ जाए मगर जब तक लोक हैं, लोकतत्व हैं तब तक आशा रखनी है। दूब(दूब घास)लोक जीवन का प्रतीक है। अकाल के समय जब सब कुछ मिट जाता है तब भी दूब रहती है। यह जीवन का संकेत है। इन्ही भावो को व्यक्त करते हैं डॉ० जगदीश व्योम के ये हाइकु-
छिड़ा जो युद्ध / रोयेगी मनुजता / हँसेंगे गिद्ध।
निगल गयी / सदियों का सृजन / पल में धरा। 
क्यों तू उदास / दूब अभी है ज़िंदा / पिक कूकेगा।
उगने लगे/ कंकरीट के वन / उदास मन । 

डा० कमलकिशोर गोयनका के एक हाइकु में इन विचारों को बड़ी सुंदर अभिव्यक्ति मिली है कि युद्ध के विनाशक वक्त गुज़रने के बाद भी भय और त्रासदी की छाया बहुत समय तक उस क्षेत्र पर छायी रहती है। भावी पीढ़ियाँ भी इससे प्रभावित होती हैं। वहीं दूसरी ओर कमलेश भट्ट कमल एक छोटे से हाइकु में कहते हैं कि झूठ कितना ही प्रबल क्यों न हो एक न एक दिन उसे सत्य के समक्ष पराजित होना ही होता है। यही सत्य है। यह भाव हमारे अंदर झूठ से संघर्ष करने की अपरिमित ऊर्जा का सृजन करता है। युवा वर्ग में बहुत कुछ करने का सामर्थ्य है आवश्यकता है तो उन्हें प्रेरित करने की, उन्हें उनकी शक्ति का आभास कराने की। इन्हीं भावों से भरी युवा वर्ग का आवाहन करती पंक्तियाँ है पारस दासोत की। ये तीनो हाइकु देखें-
कोंपल जन्मी / डरी-डरी सहमी / हिरोशिमा में।
-कमलकिशोर गोयनका 

तोड़ देता है / झूठ के पहाड़ को / राई-सा सच।
-कमलेश भट्ट 'कमल' 
है जवान तू / भगीरथ भी है तू / चल ला गंगा।
-पारस दासोत

कुछ और हाइकु -
पेड़ ने देखा / ऐड़ी उचकाकर / लाल सूरज
-नीलमेन्दु सागर
झाऊ वन में / लेट रही चाँदनी / चितकबरी
-नलिनीकान्त
ठण्डे पर्वत / रुई पहनकर / ठिठुरे रहे
-डा० मिथिलेश दीक्षित
हिंदी में हाइकु कविता पर बहुत कार्य हो रहा है। अनेक हाइकु संग्रह प्रकाशित हो रहे हैं। वेब पत्रिकाएँ हाइकु प्रकाशित कर रही हैं, फेसबुक और वाट्सएप  के माध्यम से भी अनेक अच्छे हाइकु रचनाकार सामने आ रहे हैं। जो हाइकुकार हाइकु को गंभीरता से ले रहे हैं उनके द्वारा अनेक कालजयी हाइकु लिखे जा रहे हैं। नये हाइकुकारों से यही अनुरोध है कि हाइकु को गम्भीरता से लें और अच्छे हाइकु लिखें भले ही कम लिखें। हाइकु लिखकर कई बार उसे पढ़ें तभी उसे कहीं प्रकाशित कराने के लिये भेजें, हाइकु के प्रति यही धैर्य उन्हें एक अच्छा हाइकुकार बना सकता है।
भारत से बाहर के देशों में रह रहे प्रवासी भारतीय बहुत अच्छे हाइकु लिख रहे हैं। इनमें, अमेरिका, यू.ए.ई., न्यूजर्सी, टोरंटों, इंग्लेंड, ब्रिटेन, सेन्फ्रासिस्को, सिंगापुर, आस्ट्रेलिया, नेपाल, आदि देशों में रह रहे प्रवासी भारती बहुत अच्छे हाइकु लिख रहे हैं।
"हाइकु कोश" के संपादन का कार्य विगत कई वर्षों से चल रहा था जो अब प्रकाशित हो चुका है. 728 पृष्ठ के हाइकु कोश में दुनिया भर के 1075 हाइकुकारों के 6 हजार से अधिक हाइकु हैं.


-डा० जगदीश व्योम

प्रस्तावना - हाइकु-1989 : प्रो० सत्यभूषण वर्मा

हाइकु मूलतः एक जापानी काव्य रूप है जो आज विश्व–साहित्य की निधि बन चुका है।
विश्व–मञ्च पर जापान के अभ्युदय के साथ जापानी साहित्य की ओर भी पश्चिम जगत का ध्यान गया। हाइकु की असमान तीन पंक्तियों के कारण योरोप ने हाइकु को मुक्त–छन्द का आरम्भिक रूप समझा और योरोप के कविता–प्रेमी समाज में हाइकु को मुक्त–छन्द का आरम्भिक रूप समझा और योरोप के कविता–प्रेमी समाज में हाइकु चर्चित हो उठा। आकारगत संक्षिप्तता के कारण इसे संसार की सबसे छोटी कविता घोषित किया गया। किसी ने हाइकु को प्रकृत्ति काव्य कहा‚ किसी ने इसे नीति काव्य (epigram) की संज्ञा दी। अधिकांश ने इसे प्रतीक–काव्य के रूप में ग्रहण किया। भाषागत दुर्बोधता‚ सांस्कृतिक परिवेश की भिन्नता और काव्य–संस्कारों के भेद के कारण हाइकु अनेक भ्रान्तियों के साथ पाश्चत्य काव्य–संसार में प्रविष्ट हुआ। आरम्भ के अधिकांश योरोपीय और अमरीकी अनुवाद हाइकु के साथ न्याय नहीं कर सके। शिल्प की द्वष्टि से भी अनुवादकों ने पूर्णं स्वतन्त्रता का निर्वाह किया। अतुकान्त हाइकु के अंग्रेजी में तुकान्त अनुवाद हुए हैं। 17 अक्षरी तीन पंक्तियों वाली हाइकु कविता के अनुवाद दो पंक्तियों की लम्बाई भी अनुवादक की रुचि या सुविधा के अनुसार रही है।
हिन्दी से हाइकु का प्रथम परिचय अंग्रेजी के माध्यम से हुआ। बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हिन्दी हाइकु की अनुगूंज सुनाई देने लगी थी। 1959 में अज्ञेय के कविता–संग्रह ‘अरी ओ करुणा प्रभामय’ में हाइकु के अनुवाद भी हैं और हाइकु से प्रभावित कुछ स्वतन्त्र रचनाएँ भी। अनुवाद के लिए अज्ञेय ने मूल अंग्रेजी अनुवादों के साथ ‘जापानी बन्धुओं द्वारा की गयी व्याख्याओं’ का आश्रय भी लिया है‚ जिससे उनके कुछ अनुवाद बहुत अच्छे बन पडे़ हैं। अज्ञेय ने अपनी जिन कविताओं को ‘मूल पर आधारित या मूल जापानी से प्रभावित कहा है‚ उन्हें अनुवाद न मानकर अज्ञेय की स्वतन्त्र रचनाएँ कहना ही समीचीन होगा। ‘सागर मुद्रा’ में भी अज्ञेय ने हाइकु शैली से प्रभावित कुछ कविताएँ दी हैं। अज्ञेय ने अपनी रचनाओं में मुख्यतः प्रकृति बिम्ब अंकित किए हैं पर उनके प्रकृत्ति हाइकु की अपरोक्षता का अभाव है। वे स्वयं अपने दृश्य चित्रों के साथ जुड़ जाते हैं और उनकी अपनी कवि–कल्पना अथवा उनका अपना कवि रूप उनके अनुवादों पर भी हावी हो जाता है।
हाइकु के अनुवादकों में एक महत्त्वपूर्ण नाम डॉ० प्रभाकार माचवे का है। उनकी ‘भारत और एशिया का साहित्य’ पुस्तक में हाइकु की चर्चा भी है और हाइकु कविताओं के अनुवाद भी। जापान में रहकर डॉ० सत्यपाल चुघ के कविता संग्रह ‘भोरकंठ’ में कुछ  ऐसी कविताएँ है जिन पर अज्ञेय की हाइकु रचनाओं की छाया स्पष्ट है। 1970 में प्रकाशित उनके दूसरे काव्य संग्रह ‘अंधेरी आकृतियों के पार’ में ऐसी कविताओं की संख्या अधिक है और उनमें निखार भी आया है। रीवां के आदित्यप्रताप सिंह ने हाइकु के नाम से ढेरों कविताएँ स्वयं भी लिखी हैं और दूसरों से भी लिखवाई हैं। सातवें दशक में हाइकु के स्फुट अनुवाद हिन्दी की पत्र–पत्रिकाओं में यत्र–तत्र प्रकाशित होते रहे हैं। हाइकु के अंग्रेजी अनुवादों के आधार पर हाइकु के काव्य शिल्प पर समीक्षा लेख भी लिखे जाते रहे और हाइकु की चर्चा पत्र–पत्रिकाओं में होने लगी।
इन प्रयत्नों से हाइकु चर्चित तो रहा पर उसके मर्म को समझने वाले कम ही रहे। हाइकु की पहचान अंग्रेजी के माध्यम से रही और मूल के ज्ञान के बिना वह पहचान सतही बनी रही।
हाइकु शुद्ध अनुभूति की‚ सूक्ष्म आवेगों की अभिव्यक्ति की कविता है। प्रकृत्ति काव्य नहीं है‚ अपितु प्रकृत्ति के माध्यम से जीवन में नित्य अनुभूत शाश्वत सत्यों की अभिव्यक्ति की कविता है। ऋतुबोध हाइकु की विशिष्ट पहचान है। हाइकु के प्रकृत्ति–चित्रों की सजीवता ऋतु से जुड़ी रहती है। प्रायः हाइकु की एक पंक्ति में प्रत्यक्ष कथन द्वारा अथवा सांकेतिक प्रतीकों द्वारा ऋतु का संकेत होता है। हाइकु कवि वस्तु को यथारूप चित्रित करता है। कवि ने जो देखा है‚ उसे और केवल उसे ही प्रस्तुत करता है सोनोमामा आर्थात् यथावत्, अतः उपमा‚ रूपक‚ उत्प्रेक्षा आदि सादृश्यमूलक अलंकार हाइकु की काव्य प्रकृत्ति के अनुकूल नहीं हैं। पर अन्योक्ति अथवा समासोक्ति हाइकु की विशिष्टता है। हाइकु जीवन के किसी अनुभूत सत्य की और इंगित करती हुई सांकेतिक अभिव्यक्ति है। शब्दों में जो कुछ कहा गया है‚ वह संकेत मात्र है। जो मूल कथ्य है‚ वह पाठक की ग्रहण शक्ति पर छोड़ दिया गया है।
शिल्प दृष्टि से हाइकु 5–7–5 वर्णक्रम से तीन पंक्तियों की सत्रह अक्षरी अतुकान्त कविता है। आकार की यह लघुता हाइकु का गुण भी है और यही उसकी सीमा भी। स्वानुरूपता‚ अनुप्रास लय और यति हाइकु के शिल्पगत गुण हैं। हाइकु की तीन पंक्तियों में प्रत्येक पंक्ति की सार्थकता आवश्यक है। हाइकु किसी भी विषय पर लिखे जा सकते हैं। जापानी परम्परा के अनुसार विषय की दृष्टि से हाइकु के निम्न भेद किए गए हैं—
1 ऋतु– नव वर्ष‚ ग्रीष्म‚ शरद‚ हेमन्त‚ बसन्त आदि।
2 आकाश– नभ–गंगा‚ चन्द्र‚ नक्षत्र‚ हिम‚ मेघ‚ वर्षा आदि।
3 धरती— पर्वत‚ नदी‚ सागर‚ वन‚ खेत आदि।
4 देवता— भगवान बुद्ध‚ देवता‚ मन्दिर‚ विश्वास‚ तीर्थ त्यौहार आदि।
5 जीवन— मानवीय कार्य व्यापार आदि।
6 पशु–पक्षी तथा अन्य जीव— कीट‚ मेढ़क‚ झींगुर‚ टिड्डे आदि पर भी जापनी में हाइकु रचे गए हैं।
7 वनस्पति— वृक्ष‚ पौधे‚ तृण आदि।
अनेक हाइकु कविताएँ जापानी इतिहास‚ प्राचीन साहित्य‚ पौराणिक सन्दर्भों और लोक–विश्वासों पर आधारित हैं। हाइकु के विषय चीनी साहित्य से भी लिए गए हैं। अनेक प्रसिद्ध हाइकु चीनी सूक्तियों के छायानुवाद हैं।
व्यंग्य जापानी हाइकु का विषय नहीं रहा है। हास्य और व्यंग्य यदि रचना में प्रधान हो जाय तो जापानी में उसे सेनर्यू की संज्ञा से अभिहित किया जाता है। हाइकु मानव–मन की सौन्दर्य–बोध जनित सूक्ष्म संवेदनाओं की अभिव्यक्ति का काव्य है। सेनर्यू शुद्ध लौकिक धरातल पर यथार्थ–जगत की विषमताओं और दुर्बलताओं से अपने विषय लेता रहा है। सेनर्यू प्रसिद्ध हाइकु–कविताओं की पैरोडी के रूप में भी लिखे गए हैं।
हाइकु का जेन–दर्शन के साथ गहरा सम्बन्ध रहा है। मध्य–युग के अधिकांश हाइकु–कवि जेन साधक रहे हैं। अनेक हाइकु कविताएँ ऐसे बौद्ध सन्तों द्वारा रची गई है जो अपरिग्रही थे‚ ऐहिक जीवन से निसंग होकर जन–संकुल स्थानों से दूर पर्वत या जंगल के बीच कुटिया बनाकर रहते थे। प्रकृत्ति के साथ उनका सहज साहचर्य था। परन्तु दर्शनिक–चिन्तन और अध्यात्म–साधना ने वह काव्य–दृष्टि दी है जिससे हाइकु कविता का उन्मेष हुआ है। जेन साधना विकल्पहीन और प्रत्यक्ष ज्ञान को स्वीकार करती है जिसे तर्क द्वारा नहीं‚ अन्तर की अनुभूति से ही प्राप्त किया जा सकता ही। मौन–साधना का जेन–पद्धति में विशेष महत्व रहा है। हाइकु में कथ्य और शिल्प की सादगी‚ अभिव्यक्ति की सहजता‚ शब्दों की मितव्ययता और चराचर जगत के प्रति संवेदना की भावना जेन–दृष्टि से उद्भूत है।
हाइकु आज हिन्दी में भी लिखे जा रहे हैं और भारतीय भाषाओं में भी। बंगला में रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने ‘जापान–यात्री’ में हाइकु की चर्चा करते हुए उदाहरण रूप में कुछ हाइकु–रचनाओं के बंगला अनुवाद भी दिए। उनका ‘स्फुलिंग’ काव्य–संग्रह हाइकु शैली की दो–तीन पंक्तियों की छोटी कविताओं का संकलन है। अंग्रेजी में इन कविताओं का अनुवाद ‘स्ट्रे बर्डस’ के नाम से हुआ है। असमिया में नीलमणि फूकन ने हाइकु कविताओं के सफल अनुवाद किए हैं जो ‘जापानी कविता’ नामक संकलन में उपलब्ध हैं। गुजराती में हाइकु विशेष रूप से लोकप्रिय हुआ। गुजराती के वरिष्ठ कवि स्नेहरश्मि ने गुजराती में हाइकु के प्रयोग किए और हाइकु क 5–7–5 के वर्णक्रम में ही हाइकु–रचना की। उनकी हाइकु–कविताओं का संग्रह ‘सोनेरी चाँद रूपेरी सूरज’ के नाम से प्रकाशित हुआ। इसमें उनके 359 हाइकु संकलित है जिनमें मूल हाइकु का सा ही उन्मेष भाव और प्रकृति का रूप चित्रण है। स्नेहरश्मि को भारतीय साहित्य का प्रथम सफल हाइकुकार माना जा सकता है।
‘रूपेरु चांदरणु’ और ‘गाबा हाथ जो खेल’ गुजराती के अन्य हाइकु संकलन हैं। स्नेह–रश्मि का दूसरा हाइकु–संकलन Sunrise on Snowpeaks  गत वर्ष ही गुजरात साहित्य अकादमी ने प्रकाशित किया है जिसमें उनके 304 गुजराती हाइकु हैं‚ अंग्रेजी और हिन्दी अनुवादों के साथ।
हिन्दी अनुवाद डॉ० भगवताशरण अग्रवाल ने किए है और अंगेजी अनुवाद स्वयं कवि के हैं। मूल गुजराती रचनाएँ 5–7–5 के वर्ण विधान में हैं और हिन्दी अनुवाद में भी उसी रूप को सुरक्षित रखा गया है।
गुजराती के अतिरिक्त जिस अन्य भाषा में हाइकु काफी संख्या में लिखे गए हैं‚ वह मराठी है। पिछले दशक में कई मराठी पत्रिकाओं ने हाइकु विशेंषाक निकाले हैं। गुजराती की तरह मराठी हाइकु के रूप–शिल्प ग्रहण नहीं कर पाया है। मराठी रचनाओं में मूल हाइकु का 5–7–5 का वर्ण विधान नहीं है पर हाइकु की भाव–चेतना को ग्रहण करने का प्रयत्न हुआ है। मराठी हाइकु में शिरीष पै का योगदान विशेष उल्लेखनीय है। उनके हाइकुओं का एक संग्रह 1986 में ‘हाइकु’ नाम से प्रत्युत्तर प्रकाशन से निकला है जिसके प्रथम खण्ड में उनके 72 स्वतन्त्र मराठी हाइकु हैं और दूसरे खण्ड में जापानी हाइकुओं के मराठी अनुवाद।कुछ वर्ष पूर्व ऋचा गोडबोले के कुछ ‘हाइकु’ श्याम जोशी के चित्रों के साथ धर्म–युग में प्रकाशित हुए थे। सुरेश मथुरै ने हाइकु में अक्षरों की सीमा और पंक्तियों के विषम अनुपात के महत्त्व को स्वीकार करते हुए 5–7–5 के स्थान पर मराठी में 7–9–7 के वर्णक्रम का प्रयोग किया है। कवि नरेश ने हाइकु की पैरोडियां रची हैं जिन्हें मराठी के सेनर्यू कहा जा सकता है।
सिन्धी में नरायण श्याम ने दोहा छन्द के दूसरे‚ तीसर और चौथे चरण को लेकर 11–13–11 मात्राओं की तीन पंक्तियों में हाइकु को 35 मात्राओं के मात्रिक छन्द का रूप दिया है‚ जिसमें पहली और तीसरी पंक्ति तुकान्त होती है। कृष्ण राही के सिन्धी हाइकु उनके काव्य–संग्रह ‘कुमाच’ में और नारायण श्याम के ‘माकभिना राबेल’ में सकलित हैं। डॉ० मोती लाल जोतवाणी ने सिन्धी हाइकुओं के 11–13–11 के 35 मात्रिक छन्द में ही हिन्दी अनुवाद दिए हैं।
मूल हाइकु के 17 अक्षरी वर्ण विधान को उसी रूप में हिन्दी में भी ग्रहण करना कहाँ तक स्वाभाविक और वाछंनीय है‚ यह प्रश्न चर्चा का विषय रहा है। वस्तुतः छन्द–मुक्ति के समस्त आन्दोलनों के पश्चात् भी 5–7–5 वर्णों का 17 अक्षरी विधान हाइकु कविता की मुख्य पहचान रहा है। भाषा–भेद से मराठी के 7–9–7 वर्ण अथवा सिन्धी के  11–13–11 मात्राओं के प्रयोग हाइकु के मूल पैटर्न से बहुत दूर नहीं हैं पर हाइकु के रूप–शिल्प और वस्तु–विधान से पूर्णतः स्वतन्त्र किसी रचना को हाइकु ही क्यों कहा जाए उसे कोई और नाम भी दिया जा सकता है। मिनी कविता‚ कणिका‚ क्षणिका‚ मनके‚ शब्दिकाएं‚ दंशिकाएं‚ सीपिकाएं आदि नामों से अभिहित छोटी–छोटी कविताएँ आज हिन्दी की लगभग प्रत्येक पत्रिका में मिल सकती हैं। हाइकु के नाम से हिन्दी में जो लिखा जाए‚ इसके हाइकु  के मूल स्वरूप और शिल्प की पहचान यथासम्भव आवश्यक है। हाइकु  केवल कविता ही नहीं‚ शब्द की साधना भी है।
मूल जापानी से हाइकुओं  के मेरे अनुवाद ‘जापानी कविताएँ’ शीर्षक पुस्तक में 1977 में प्रकाशित हुए थे।इस पुस्तक में 10 तांका और 40 हाइकु कविताओं के हिन्दी अनुवाद जापानी लिपि में मूल कविता और उसके देवनागरी लिप्यन्तरण के साथ दिए गए हैं। साथ ही हाइकु के पर एक परिचयात्मक निबन्ध भी है। इस पुस्तक के प्रकाशन ने हाइकु के प्रति एक नयी रुचि जागृत की, 1978 में ‘भारतीय हाइकु क्लब’ की स्थापना के साथ ‘हाइकु’ नामक पत्र देवनागरी लिपि में हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में रची गई हाइकु कविताओं का प्रकाशन करता है और हाइकु पर चर्चा का एक मञ्च भी है।
गत वर्षों में हिन्दी में कई हाइकु संकलनों का प्रकाशन हिन्दी–हाइकु की विशिष्ट उपलब्धि कहा जा सकता है। ये संकलन हैं—शाश्वत क्षितिज, डॉ० भगवतशरण अग्रवाल, खुशबू का सफर डॉ० सुधा गप्ता, हाइकु 575 डॉ० लक्ष्मणप्रसाद नामक, त्रिवेणी- गोविन्द नारायण मिश्र, मालवी हाइकु- सतीश दुबे, Sunsine on Snowpeaks -  स्नेह रश्मिह की चर्चा गुजराती हाइकु के सन्दर्भ में हो चुकी है। डॉ० सुधा गुप्ता का दूसरा हाइकु–संकलन ‘लकड़ी का सपना’ प्रेस में है। डॉ० सत्यपाल चुघ के काव्य–संग्रहों ‘सूर्य और सीकरी’ तथा ‘वामन के चरण’ उनकी हाइकु रचनाएँ भी हैं। संधान–24 में जीवनप्रकाश जोशी ने अपने 57 हाइकु  प्रकाशित किए हैं। हाइकु पर मेरा परिचय–ग्रंथ ‘जापानी हाइकु और आधुनिक हिन्दी कविता’ हिन्दी–विकास पीठ‚ मेरठ से 1983 में प्रकाशित हुआ। ‘हाइकु’ पत्रिका के माध्यम से 70 से अधिक नाम हाइकु के साथ जुड़ चुके हैं।
हिन्दी हाइकु ने जपानी हाइकु की संक्षिप्तता और उसके रूप–शिल्प को अपना लिया है। जापानी और हिन्दी भाषाओं की प्रकृत्ति में अन्तर होते हुए भी आज के हिन्दी हाइकु ने जापानी हाइकु के 5–7–5 के वर्णक्रम के बन्धन को भी स्वीकार कर लिया है। दार्शनिक चिन्तन के धरातल पर हाइकु की काव्यभूमि हिन्दी कविता के लिये अजानी नहीं है। हिन्दी हाइकु किसी निश्चित दर्शन या चिन्तन–धारा के साथ नहीं जुड़ा है। भाव–बोध और विषय–विस्तार हिन्दी का अपना है। यह आवश्यक भी है। हाइकु ने हिन्दी कवि को नयी कल्पनाएँ और नयी भाव–भंगिमा दी है और हिन्दी ने हाइकु को भारतीय संस्कार दिया है। सुधा गुप्ता ने बारहमासा और षड्–ऋतु वर्णन पर हाइकु लिखे हैं। राधेश्याम ने राधाकृष्ण के पौराणिक प्रसंगों को हाइकु का विषय बनाया है। उन्होंने हाइकु–शैली में पूरी रामायण की रचना की है जो प्रकाशन की प्रतीक्षा में है। विक्रम विश्वविद्यालय के डॉ० विजयेन्द्र रामकृष्ण शास्त्री ने अद्वैत–दर्शन पर दर्जनों हाइकु लिखे हैं। सामाजिक–राजनीतिक विसंगतियों‚ सामयिक विषयों और आज की चतुर्दिक व्याप्त हिंसा को भी हिन्दी हाइकुकारों ने अपनी अभिव्यक्ति का विषय बनाया है। ऐसी अनेक रचनाएँ जापानी दृष्टि से हाइकु की अपेक्षा सेनर्यू के अधिक निकट हैं‚ पर हिन्दी में यह भेद नहीं रखा जा सका है।
प्रस्तुत संकलन ‘हाइकु–1989’ हिन्दी के 30 हाइकु कवियों की चुनी हुई 210 हाइकु –रचनाओं का संग्रह है। प्रत्येक रचनाकार की केवल सात रचनाएँ इस संग्रह के लिए चुनी गई है। सभी रचनाएँ इस संग्रह के लिए चुनी गई हैं। सभी रचनाएँ 5–7–5 वर्णक्रम के छन्द–विधान में है और हाइकु की मूल चेतना से दूर नहीं हैं। संग्रह के अंधिकाश कवि ‘भारतीय हाइकु क्लब’ के पत्र ‘हाइकु’ में प्रकाशित हो चुके हैं और हाइकुकार के रूप में अपनी विशिष्ट पहचान बना चुके हैं। हिन्दी हाइकु मूल हाइकु के रूप–हाइकु शिल्प को अपना कर भी अपनी निजी पहचान के साथ अभिव्यक्ति की नयी दिशा की खोज में है। ‘हाइकु–1989’ इस खोज का व्यापक परिदृश्य प्रस्तुत करता है और हाइकु के प्रति प्रवर्धमान रुचि का परिचय देता हैं।
‘हाइकु –1989’ हिन्दी हाइकु का प्रथम प्रतिनिधि संकलन कहा जा सकता है और इसी दृष्टि से मैं इसका स्वागत करता हूँ।

5 जनवरी 1989
–डॉ० सत्य भूषण वर्मा
प्रोफेसर तथा अध्यक्ष
जापानी भाषा विभाग
जवाहरलाल नेहरू विश्व विद्यालय
नई दिल्ली–110067

हमारी बात- हाइकु-1989 : कमलेश भट्ट कमल


‘शब्द ब्रह्म का रूप है‚ इसे नष्ट मत करो। कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक कहने की कला सीखो’ चिन्तक एवं साहित्यकार अज्ञेय का यह कथन जापानी कविता ‘हाइकु’ के सन्दर्भ में अत्यन्त प्रासंगिक हो उठता है। क्योंकि कविता के नाम पर शब्दों का जितना अपव्यय हिन्दी कविता में दिखाई देता है‚ उतना संभवतः अन्यत्र न हो। शब्दों के इस अपव्यय का दुष्प्रभाव पाठकों में कविता के प्रति अरुचि के रूप में सामने आया है और सच्चाई तो यह है कि इतर कारणों के अभाव में कविता की पुस्तक का प्रकाशक मिल पाना बिल्कुल असंभव–सा हो गया है। कविता के रूप में शब्दों के अपव्यय की इस अन्धी दौड़ में हाइकु कविता शब्दों के प्रयोग का अनुशासन सिखलाती है और डॉ० सत्यभूषण वर्मा के शब्दों में कहें तो शब्द की साधना का नाम हाइकु है।
जापान में वहाँ की सबसे लोकप्रिय काव्य–शैली के रूप में हाइकु को मूलतः प्रकृति मूलकता विद्यमान है यद्यपि इस प्रवृत्ति से इतर हाइकु जापानी में भी हैं और भारतीय भाषाओं में भी लिखे जा रहें हैं।
विकास के नाम पर प्राकृतिक स्त्रोतों का जिस तरह से दोहन‚ शोषण और अपमिश्रण विश्व भर में हुआ है‚ उसकी परिणति आज हम भयंकर पर्यावरण–असन्तुलन के रूप में देंख रहे हैं। प्राणिमात्र की जीवन दायिनी श्वास अपनी प्रत्येक गति के साथ किस–किस तरह का और कितना विष शरीर के अन्दर छोड़ रही है‚ इसका सही–सही आकलन सम्भव नहीं है। सालों–साल चलते रहने वाले भयंकर सूखे और अकाल की प्रेतछाया कब‚ किस देश के‚ किस हिस्से को अपना ग्रास बना लेगी‚ इसके बारे में भी ठीक–ठीक भविष्यवाणी नहीं की जा सकती।
कहने का अभिप्राय मात्र यह कि प्रकृत्ति के प्रति अपनी निष्ठुरता और नासमझी के कारण बीसवीं सदी की सभ्यता ने जाने–अनजाने‚ अपना और आने वाली पीढ़ियों का कितना अहित कर डाला है‚ इस बात की कल्पना ही त्रासद है। ऐसे में हाइकु कविता यदि प्रकृत्ति में जीवन्तता‚ प्रेम और सौन्दर्य की तलाश करती है तो इसे किस तरह अप्रासंगिक ठहराया जा सकता है? अनुशासन भले ही जापानी हो— कतिपय साहित्यकारों ने हाइकु की जडे. भी संस्कृत साहित्य और गायत्री मन्त्र में तलाशने की कोशिशें की हैं–लेकिन किसी भी तरह से हाइकु कविता‚ जो हिन्दी या हिन्दीतर भारतीय भाषाओं में लिखी जा रही है‚ भारतीय जन–जीवन की धारा से अपने को अलग नहीं करती है। हिन्दी हाइकु की उत्तरोत्तर प्रगति का कदाचित् यही आधार भी है। इन विशेषताओं और सम्भावनाओं के रहते हाइकु को यदि इक्कीसवीं सदी के काव्य की संज्ञा दी जाय तो सम्भवतः अतिशयोक्ति न होगी।
हिन्दी के प्रथम प्रतिनिधि हाइकु संकलन के रूप में हाइकु–1989 कृति अपने योजना काल से लेकर प्रकाशित होकर वर्तमान रूप में प्रस्तुतीकरण तक विविध खट्टे–मीठे अनुभवों से होकर गुजरती है। हिन्दी में हाइकु लिखने वाले सैकड़ों रचनाकारों से पत्र व निजी सम्पर्क के द्वारा रचनाएँ मंगाने तथा उनमें से प्रतिनिधि रचनाओं का चयन ने छः से आठ माह तक का समय ले लिया। रचनाओं का चयन करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखा गया कि संकलित की जाने वाली कविताएँ हाइकु के मूल अनुशासन 5–7–5 में ही हों‚ ताकि कम से कम इस अनुशासन के विषय में नये हाइकुकारों को भ्रम का शिकार न होना पडे़।
संकलन के लिए काफी रचनाएँ डॉ० सत्यभूषण वर्मा के लघु पत्र ‘हाइकु’ की पत्रावलियों से ली गईं‚ बाद में उनके रचनाकारों से औपचारिक सहमतियाँ प्राप्त कर ली गईं। प्रायः अनूदित रचनाएँ तथा हिन्दी की आंचलिक बोलियों की रचनाएँ संकलन में सम्मिलित नहीं की गईं। गुजराती के वरिष्ठ कवि झीणा भाई देसाई ‘स्नेह रश्मि’ इसके अपवाद रहे हैं। स्नेह रश्मि जी भारतीय भाषाओं में हाइकु लिखने वालों में सबसे वरिष्ठ और सबसे पहले कवि हैं‚ साथ ही उनकी पुस्तक ‘सन राइज ऑन स्नो पीक्स’ में उनके हाइकु एक साथ गुजराती‚ हिन्दी व अंग्रेजी में उपलब्ध हैं। स्नेह रश्मि जी के हिन्दी हाइकु इसी पुस्तक से लिए गए हैं‚ जो गुजराती से हिन्दी में डॉ० भगवत शरण अग्रवाल द्वारा अनूदित हैं।
संकलन की अपनी सीमाओं के कारण हिन्दी के कई ऐसे रचनाकार इसमें सम्मिलित नहीं हो पाये हैं जो सतत हाइकु सृजन में रत हैं। उन्हें आगे किसी संकलन में सम्मिलित किया जायेगा।
संकलन का लगभग पूरा कार्य जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय‚ नई दिल्ली के जापानी भाषा विभाग के प्रोफेसर एवं अध्यक्ष डॉ० सत्यभूषण वर्मा के संरक्षण में उनके ही सहयोग और परामर्श से सम्पन्न हुआ है। हाइकु–व्यक्तित्व डॉ० वर्मा की इस उदारता के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए हमारे पास शब्द नहीं हैं। संकलन के लिए भूमिका लिखने का गुरुत्तर दायित्त्व वहन करके उन्होंने हमारे ऊपर एक और कृपा की है।
संकलन के प्रकाशन के सम्बन्ध में डॉ० भक्त दर्शन‚ कार्यकारी उपाध्यक्ष‚ उ०प्र० हिन्दी संस्थान, प्रसिद्ध बाल साहित्यकार श्री निरंकार देव सेवक, श्री शंकर सुल्तानपुरी, कवि समालोचक डॉ० रामप्रसाद मिश्र‚ व्यंग्यकार–कथाकार डॉ० दामोदर दत्त दीक्षित एवं अग्रज साहित्यकार श्री कौशलेन्द्र पाण्डेय के स्नेहाशीष के लिए हम अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं।
संकलन में सम्मिलित सभी रचनाकारों ने अपने हाइकु देने के साथ–साथ प्रकाशनादि के बारे में भी समय–समय पर अपने सुझाव दिए‚ उन सभी के प्रति हम आभार व्यक्त करते हैं।
रायबरेली की साहित्यिक मित्र मण्डली के प्रति हम विशेष रुचि दिखाई‚ उनमें से ‘कादम्बनी’ के उपसंपादक श्री धनंजय सिंह का स्मरण न करना कृतध्नता होगी। संकलन की सम्पूर्ण पाण्डुलिपि के वे प्रथम पाठक रहे और इस रूप में उसकी सम्मतियों ने हमारा आगे का रास्ता यथासम्भव सुगम बनाया।
संकलन में रचनाकारों का क्रम उनके नामों के वर्णक्रम के अनुसार दिया गया है।
और अन्त में हम प्रकाशक श्री भूपाल सूद समेत उन सभी शुभेच्छुओं के प्रति समन्वित रूप से आभार प्रकट करते हैं‚ जिन्होंने किसी भी रूप में इस पुण्य–आयोजन में हमें सहयोग दिया है।
कृति पर आप सभी की बेबाक टिप्पणी और सम्मति हमारी आगामी योजनाओं की दिशा तय करने में सहायक होगी‚ अस्तु हमें आपके सुझावों की उत्सुकता से प्रतीक्षा रहेगी।

नववर्ष 1989
–कमलेश भट्ट कमल

29 April 2011

हाइकु क्या है- प्रो० सत्यभूषण वर्मा

[ 5 मार्च 2004 को होशंगाबाद (म0प्र0),  में आयोजित  ‘हाइकु समारोह’  में मुख्य अतिथि के रूप में प्रो० सत्यभूषण वर्मा द्वारा दिये गये भाषण का एक अंश ]


बात हाइकु की चल रही है। कमलेश जी ने अभी कहा कि हाइकु की गोष्ठी में गज़ल कहां से आयेगी। बहुत पहले मैंने अपनी किताब में हाइकु की चर्चा करते हुए लिखा था कि गज़ल का हर शेर एक हाइकु ही तो है। और कमलेश जी की गज़लों का हर शेर सचमुच आत्मा से हाइकु था। भले ही रूप में थोड़ा हाइकु के 5–7–5 के बंधन में नहीं था। रही बंधन की बात। मैं शर्मा जी की बात लेता हूँ। उन्होंने कहा कि वे साहित्य को नहीं समझते और उसके बाद उन्होंने हाइकु के बंधन को लेकर कविता पर जो टिप्पणी की‚ मुझे लगा कि उन्होंने हिन्दी में लिखने वाले सभी हाइकुकारों को हाइकु का एक सूत्र–वाक्य दे दिया है कि हाइकु कैसे लिखा जाना चाहिए। इससे अधिक साहित्य की समझ किसे कहते हैं। मैं शर्मा जी की बात से ही हाइकु पर अपनी बात कहूँगा। उन्होंने कहा‚ हाइकु 5–7–5 के बंधन में बंधी हुई एक कविता है और फिर उन्होंने प्रश्न उठाया कि क्या कविता बंधन के अन्दर बंध कर लिखी जा सकती है? बहुत बड़ी बात कह दी है उन्होंने। मुझे चीन की एक कथा याद आ गयी चीन में लड़कियों के छोटे पैर सुन्दरता की माप माने जाते हैं। सुन्दरता के मापदण्ड हर देश पैदा होते ही उसके पाँव में लोहे के जूते डाल देते थे कि पाँव बड़े न हों। उन लोहे के जूतों में बंधे हुए उस पाँव का क्या हाल होता होगा‚ बच्ची को कितनी यातना मिलती होगी‚ इसकी कल्पना कोई भी संवेदनशील व्यक्ति कर सकता है। हिन्दी में अधिकांश हाइकु जो लिखे जा रहे हैं‚ इसी प्रकार लिखे जा रहे हैं।
    शर्मा जी ने एक और बात कही कि कविता तो स्वतः प्रस्फुटित होती है। तुलसीदास जब रामचरित मानस लिख रहे थे तो मात्राओं की संख्या गिन–गिन कर चौपाई नहीं लिखते थे। और जब वह लिखते थे तो चौपाई में 16–16 मात्राएँ स्वयं आ जाती थीं। क्यों? उनके पास कहने के लिए मन की गहराइयों के अंदर सागर भरा हुआ था और वह सागर उमड़ता था‚ उनकी वाणी से निसृत होता था‚ प्रस्फुटित होता था और वह स्वयं अपने उस प्रस्फुटित होने के‚ निसृत होने के प्रवाह में एक रूप ले लेता था। और उस रूप को छंदशास्त्रियों‚ व्याकरणाचार्यो ने 16 मात्राओं की गणना से व्याख्यायित कर उसे चौपाई नाम  दिया। हाइकु 5–7–5 की गणना कर सायास रची गयी रचना नहीं है। हाइकु किसी वस्तु के प्रति‚ किसी विषय के प्रति‚ किसी भाव की अनुभूति के प्रति हमारे मन में जो तात्कालिक प्रतिक्रिया होती है‚ उसकी सहज अभिव्यक्ति की कविता है। और प्रतिक्रिया बहुत क्षणिक होती है‚ लम्बी नहीं होती। उस प्रतिक्रिया को लम्बा करता है हमारा सोच‚ हमारा चिंतन‚ हमारी कल्पना। कविता के विद्यार्थी जानते हैं‚ कविता के भाव पक्ष के तीन तत्व माने जाते हैं– भाव‚ कल्पना और चिन्तन। भाव तो एक क्षण में उभरता है मन में। भाव का क्षण बहुत छोटा होता है। उसके बाद उसमें कल्पना जुड़ती है‚ उसमें चिंतन समाता है मनुष्य का‚ व्यक्ति का और वह एक कविता को जन्म देता है। लेकिन अगर हम उस भाव के उस अनुभूत क्षण को पकड़ लें। उसकी मन में जो प्रतिक्रिया हुई है‚ उस प्रतिक्रिया को ज्यों का त्यों अगर व्यक्त करने का प्रयत्न करें तो वह दो–चार शब्दों में ही समा जायेगा। उसके लिये बहुत लम्बी कविता की आवश्यकता नहीं होती।वह जो भाव की प्रतिक्रिया है मन के अन्दर‚ उसको शब्दों में अभिव्यक्त करने की जो हमारे अन्दर एक तड़प उठती है‚ वह तड़प जब एक रूप लेती है तो बहुत थोड़े शब्दों में हम वह सब कह जाते हैं जो हमारे मन के अन्दर प्रस्फुटित होता है। हाइकु वह है। और क्योंकि अनुभूति की गहराई का वह क्षण बहुत छोटा होता है इसलिए हमारी अभिव्यक्ति का आकार जो है वह 5–7–5 से आगे नहीं बढ़ पाता है। तो 5–7–5 हाइकु का कलेवर है। हाइकु के वस्त्र हैं। वस्त्र हमारे सम्पूर्ण व्यक्तित्व के‚ शरीर के माप के अनुसार बनाये जाते हैं‚ शरीर को काट–छाँट कर वस्त्रों के अनुसार नहीं ढाला जाता है। हाइकु 5–7–5 में बंधी हुई रचना नहीं है। हाइकु वह है जो 5–7–5 के अन्दर कह दिया गया है।
    हाइकु का सबसे बड़ा कवि है - ‘बाशो’। आज हाइकु विश्व–कविता बन चुकी है। इसका मूल उद्गम जापान से है। आज विश्व की सभी महत्वपूर्ण भाषाओं में हाइकु लिखे जा रहे हैं। विश्व में जहाँ कहीं भी हाइकु की चर्चा हुई है और जहाँ हाइकु की चर्चा होती है‚ ‘बाशो’ का नाम सबसे पहले आता है। हाइकु जैसी अधिकांश रचनाएँ आज हिन्दी में हाइकु के नाम से रची  जा रही हैं। एक उदाहरण है बाशो से पहले की रचना का 5–7–5 में कविता जापानी में है। हिन्दी में उसका अर्थ होगा–
“चाँद को हत्था लगा दिया जाये तो पंखा बन जायेगा।”
    जापानी पंखे आप देखें तो एक डण्डी होती है और एक गोला–सा होता है और वह जापानी पंखा होता है। कहीं शायद आपने चित्रों में या और कहीं देखे होगें ऐसे पंखे। तो कवि चाँद को देखता है और कल्पना करता है। हत्थे की कमी है। चाँद को हत्था लगा दिया जाये तो बन जायेगा पंखा। कविता कहाँ है इसमें। हाँ‚ 5–7–5 में बाँध कर कह दिया गया है इसे।
    बाशो पहला व्यक्ति था जिसने हाइकु को वह रूप दिया कि उसे काव्य रूप में जापानी साहित्य में मान्यता प्राप्त हुई।और हाइकु जापानी साहित्य की एक सबल काव्य–धारा बन गया। आज 21 वीं शताब्दी में काव्य का‚ साहित्य का प्रवाह महासागर का रूप ले चुका है। आज पूरे विश्व की कविता का प्रभाव‚ पूरे विश्व के साहित्य का प्रभाव संसार के हर देश की कविता और साहित्य पर पड़ता है. जापान में भी आज आधुनिक कविताएँ लिखी जा रहीं है। जापानी कविता पर आज पश्चिम का प्रभाव है‚ चीन का प्रभाव है‚ भारत के संस्कृत और पालि साहित्य का प्रभाव जापानी साहित्य पर पड़ा है क्योंकि जापान में सैकड़ों वर्ष बौद्ध धर्म के माध्यम से भारतीय साहित्य का न केवल अध्ययन–मनन किया जाता रहा है बल्कि अनुवाद भी जापानी में होते रहे हैं। प्राचीन भारतीय साहित्य के लगभग सभी महत्वपूर्ण महान ग्रंथों का जापानी में अनुवाद मिलता है। उन ग्रंथों ने जापान के मानस का निर्माण किया है‚ जापान की संस्कृति का निर्माण किया है‚ जापान के संस्कारों को एक रूप दिया है। लेकिन इन सारे परिवर्तनों के बाद भी हाइकु आज भी जापान की एक लोकप्रिय धारा के रूप में प्रवाहित है अपने उसी रूप में जिसको बाशो ने आरम्भ किया था। बाशो की ही एक बहुत ही प्रसिद्ध कविता है जापानी में—
    कारे एदा नि   
    कारसु नो तोमारिकेरि   
    आकि नो कुरे।
ज़रा गिनती कीजिए। हम लोग 5–7–5 में बाँध कर हाइकु की रचना करते हैं। इसकी गिनती कीजिए। यह हाइकु के सबसे प्रसिद्ध‚ सबसे महान‚ हाइकु के विश्वविख्यात कवि ‘बाशो’ की एक बहुत प्रसिद्ध रचना है जिसके अनुवाद हिन्दी में ही नहीं‚ संसार की लगभग हर महत्वपूर्ण भाषा में हो चुके हैं। हिन्दी में अज्ञेय ने इसका अनुवाद किया है—
सूखी डाली पर्
काक एक एकाकी
साँझ पतझड़ की।

और इसकी‚ मूल कविता की जरा वर्ण–गणना कीजिए–
 का‚ रे‚ ए‚ दा‚ नि ह्य5हृ
 का‚ रा‚ सु‚ नो‚ तो‚ मा‚ रि‚ के‚ रि‚ ह्य, हृ
 आ‚ कि‚ नो‚ कु‚ रे ह्य5हृ
ये तो 5–9–5 हो गये। तो 5–7–5 का बंधन है‚ वह तो खुद बाशो ने ही तोड़ दिया। तो इससे क्या निष्कर्ष निकलता है? वस्तु के रूप से जो कथ्य है‚ जो भाव है‚ वह अधिक महत्वपूर्ण है और अगर वह 5–7–5 के रूप में प्रस्फुटित होता है तो सोने पर सुहागा। ऐसी स्वतः प्रस्फुटित रचना‚ स्वतः निसृत शब्द–बंध‚ हृदय से निकली हुई कविता अपने आप अपना रूप आकार ले लेती है। तो हाइकु की पहली शर्त है वह हृदय से निकला होना चाहिए। वह सायास रचना नहीं होनी चाहिए। पहले से निष्कर्ष निकाल कर कि हमने 5–7–5 के अन्दर ही कुछ कहना है‚ उससे हाइकु नहीं बनेगा।
एक गद्य–वाक्य को सायास 5–7–5 के तीन टुकड़ों बाँट कर यह कर देना कि देखिए मेरे अन्दर कितनी रचना–सामथ्र्य है। मैं इतनी बड़ी बात को केवल 17 अक्षरों के अन्दर बाँध कर रख सकता हूँ। मैं हाइकुकार हो गया हूँ। किसी पुरानी कहावत‚ किसी पुराने मुहावरे‚ भारतीय दर्शन के घिसे पिटे शिक्षित–अशिक्षित हर एक के मुँह पर चढ़े हुए किसी पुराने सूत्र को 5–7–5 के वर्णों में बाँध कर यह कह देना कि मैंने भारतीय दर्शन के सार को 5–7–5 के 17 अक्षरों  में  निचोड़ कर रख दिया है‚ वह हाइकु नहीं है।उसको आप अन्य कुछ भी कह सकते हैं। मैं इसको शब्द की साधना भी कह सकता हूँ। हमारे संस्कृत साहित्य में तो छंद–शास्त्र का इतना विविध‚ विशाल सागर है कि कविता का कोई भी रूप कहीं न कहीं उन छंदो के अन्दर कहीं न कहीं फिट हो जाता है।
    हमारे दिल्ली विश्विद्यालय के बहुत प्रसिद्ध अध्यापक विद्वान थे हिन्दी के डॉ0जगदीश कुमार। उन्होंने अथाह शोध के बाद एक किताब लिखी थी‚ ‘विश्व साहित्य की चेतना’ या कुछ ऐसा ही नाम था ‘विश्व कविता की खोज’। शायद यही नाम था। उन दिनों हाइकु की चर्चा भी बहुत थी।और उन्होंने एकदम निर्णय दे दिया कि हाइकु गायत्री मंत्र से उद्भूत है। मैं उन दिनों जोधपुर विश्वविद्यालय में हिन्दी का अध्यापक था। जब वह किताब मेरे हाथ में आई तब मैं दिल्ली में आ चुका था।मैंने उनको पत्र लिखा। मैंने पूछा‚ आपने यह किस आधार पर लिखा है कि हाइकु गायत्री मंत्र से उद्भूत है। मै हिन्दी का अध्यापक रहा हूँ। जापानी साहित्य का विद्यार्थी हूँ।बाद में मुझे भारत में जापानी साहित्य का पहला प्रोफेसर होने का सम्मान प्राप्त हुआ जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय जैसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में। तो मैंने उनको बहुत विनम्र शब्दों में लिखा कि मैं यह समझ नहीं पाया हूँ कि आपने हाइकु के उद्गम को गायत्री मंत्र से कैसे निकाल लिया। बहुत रोचक उत्तर मिला मुझे। उन्होंने लिखा‚ बन्धु मैंने अपने शोध में न जाने कितने ग्रंथों का अध्ययन किया है। यह निष्कर्ष मैंने कहाँ से निकाला‚ किस आधार पर मैंने यह स्थापना की‚ आज मुझे याद नहीं है।
    इतनी बड़ी बात वे कह गये और उन्हें याद ही नहीं है। तो उन्होंने शोध क्या की ? ऐसी शोधें भी हमारे विद्वानों द्वारा होती हैं। तो कहने का तात्पर्य यह है कि हाइकु की पहली शर्त है कि मन के अन्दर किसी भाव को अनुभूत कर‚ किसी भावानुभूति की जो तात्कालिक प्रतिक्रिया हमारे भीतर होती है या किसी सुन्दर दृश्य को देखकर–वह एक सुंदर फूल हो सकता है‚ वह नर्मदा नदी के प्रवाह के अन्दर उठती हुई एक चपल लहर हो सकती है‚ आकाश में अचानक डूबते सूर्य की एक झलक हो सकती है–उस एक क्षण की‚ एक झलक की प्रतिक्रिया हमारे संवेदनशील मन के अन्दर होती है जो हमारी सौंदर्य–चेतना को तत्काल झकझोर देती है। मन इस अनुभूति को अभिव्यक्त करने के लिये व्याकुल हो उठता है। तब हमारे मन से जो निकलता है‚ वह हाइकु  है।

--प्रोफेसर सत्यभूषण वर्मा

27 April 2011

चुलबुली रात ने (हाइकु-संग्रह)

चुलबुली रात ने - (हाइकु-संग्रह)
रचनाकार-   डॉ0 सुधा गुप्ता

संस्करण-  अप्रैल-2006
मूल्य- 125 रुपए
प्रकाशक-पुष्करणा ट्रेडर्स, महेन्द्रू, पटना
पक्की जिल्द, पृष्ठ-150
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इस संग्रह में डॉ0 सुधा गुप्ता ने अपनी 141 हाइकु कविताओं को 150 पृष्ठों पर एक-एक सजाकर प्रस्तुत किया है। पुस्तक देखने से ही मन मोह लेती है। पढ़ने के बाद अधिकतरतर हाइकु, हाइकुकार द्वारा पकड़े गए प्रकृति के किसी क्षण विशेष की अनुभूति से पाठक को भी जोड़ देते हैं। वही दृश्य सामने उपस्थित होने लगता है आहिस्ता ..... आहिस्ता.... यही एक सफल हाइकुकार की विशेषता होती है। किन्तु यह हुनर बहुत आसानी से नहीं आता, बहुत धैर्य की आवश्यकता होती है हाइकु की रचना के लिए। डॉ0 सुधा गुप्ता के हाइकु एक अलग तरह का अहसास कराते हैं। उनके अनेक हाइकुओं के दृश्यबिम्ब अन्य हाइकुकारों के हाइकुओं में अनायास ही आ जाते हैं। इसका संकेत सुधा जी ने अपनी भूमिका में किया है। इस महत्त्वपूर्ण संग्रह का भरपूर स्वागत होगा। कुछ हाइकु इसी संग्रह से-
बर्फ़ के फाहे
आहिस्ता गिर रहे
धुनी रुई से   (पृ0-43)


मेघ मुट्ठी में
कैद चाँद फिसला
निकल भागा  (पृ0-50)


बज उठते
सन्नाटे के घुँघरू
पाखी के स्वर   (पृ0-59)



गुल्लक फोड़
चुलबुली रात ने
बिखेरे सिक्के   (पृ0-82)



फूलों की राखी
सजा के कलाई में
घूमे वसंत     (पृ0-132)



नीला कालीन
चर गए शशक
दूब के धोखे     (पृ0-143)





-समीक्षक -
डा० जगदीश व्योम