‘शब्द ब्रह्म का रूप है‚ इसे नष्ट मत करो। कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक कहने की कला सीखो’ चिन्तक एवं साहित्यकार अज्ञेय का यह कथन जापानी कविता ‘हाइकु’ के सन्दर्भ में अत्यन्त प्रासंगिक हो उठता है। क्योंकि कविता के नाम पर शब्दों का जितना अपव्यय हिन्दी कविता में दिखाई देता है‚ उतना संभवतः अन्यत्र न हो। शब्दों के इस अपव्यय का दुष्प्रभाव पाठकों में कविता के प्रति अरुचि के रूप में सामने आया है और सच्चाई तो यह है कि इतर कारणों के अभाव में कविता की पुस्तक का प्रकाशक मिल पाना बिल्कुल असंभव–सा हो गया है। कविता के रूप में शब्दों के अपव्यय की इस अन्धी दौड़ में हाइकु कविता शब्दों के प्रयोग का अनुशासन सिखलाती है और डॉ० सत्यभूषण वर्मा के शब्दों में कहें तो शब्द की साधना का नाम हाइकु है।
जापान में वहाँ की सबसे लोकप्रिय काव्य–शैली के रूप में हाइकु को मूलतः प्रकृति मूलकता विद्यमान है यद्यपि इस प्रवृत्ति से इतर हाइकु जापानी में भी हैं और भारतीय भाषाओं में भी लिखे जा रहें हैं।
विकास के नाम पर प्राकृतिक स्त्रोतों का जिस तरह से दोहन‚ शोषण और अपमिश्रण विश्व भर में हुआ है‚ उसकी परिणति आज हम भयंकर पर्यावरण–असन्तुलन के रूप में देंख रहे हैं। प्राणिमात्र की जीवन दायिनी श्वास अपनी प्रत्येक गति के साथ किस–किस तरह का और कितना विष शरीर के अन्दर छोड़ रही है‚ इसका सही–सही आकलन सम्भव नहीं है। सालों–साल चलते रहने वाले भयंकर सूखे और अकाल की प्रेतछाया कब‚ किस देश के‚ किस हिस्से को अपना ग्रास बना लेगी‚ इसके बारे में भी ठीक–ठीक भविष्यवाणी नहीं की जा सकती।
कहने का अभिप्राय मात्र यह कि प्रकृत्ति के प्रति अपनी निष्ठुरता और नासमझी के कारण बीसवीं सदी की सभ्यता ने जाने–अनजाने‚ अपना और आने वाली पीढ़ियों का कितना अहित कर डाला है‚ इस बात की कल्पना ही त्रासद है। ऐसे में हाइकु कविता यदि प्रकृत्ति में जीवन्तता‚ प्रेम और सौन्दर्य की तलाश करती है तो इसे किस तरह अप्रासंगिक ठहराया जा सकता है? अनुशासन भले ही जापानी हो— कतिपय साहित्यकारों ने हाइकु की जडे. भी संस्कृत साहित्य और गायत्री मन्त्र में तलाशने की कोशिशें की हैं–लेकिन किसी भी तरह से हाइकु कविता‚ जो हिन्दी या हिन्दीतर भारतीय भाषाओं में लिखी जा रही है‚ भारतीय जन–जीवन की धारा से अपने को अलग नहीं करती है। हिन्दी हाइकु की उत्तरोत्तर प्रगति का कदाचित् यही आधार भी है। इन विशेषताओं और सम्भावनाओं के रहते हाइकु को यदि इक्कीसवीं सदी के काव्य की संज्ञा दी जाय तो सम्भवतः अतिशयोक्ति न होगी।
हिन्दी के प्रथम प्रतिनिधि हाइकु संकलन के रूप में हाइकु–1989 कृति अपने योजना काल से लेकर प्रकाशित होकर वर्तमान रूप में प्रस्तुतीकरण तक विविध खट्टे–मीठे अनुभवों से होकर गुजरती है। हिन्दी में हाइकु लिखने वाले सैकड़ों रचनाकारों से पत्र व निजी सम्पर्क के द्वारा रचनाएँ मंगाने तथा उनमें से प्रतिनिधि रचनाओं का चयन ने छः से आठ माह तक का समय ले लिया। रचनाओं का चयन करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखा गया कि संकलित की जाने वाली कविताएँ हाइकु के मूल अनुशासन 5–7–5 में ही हों‚ ताकि कम से कम इस अनुशासन के विषय में नये हाइकुकारों को भ्रम का शिकार न होना पडे़।
संकलन के लिए काफी रचनाएँ डॉ० सत्यभूषण वर्मा के लघु पत्र ‘हाइकु’ की पत्रावलियों से ली गईं‚ बाद में उनके रचनाकारों से औपचारिक सहमतियाँ प्राप्त कर ली गईं। प्रायः अनूदित रचनाएँ तथा हिन्दी की आंचलिक बोलियों की रचनाएँ संकलन में सम्मिलित नहीं की गईं। गुजराती के वरिष्ठ कवि झीणा भाई देसाई ‘स्नेह रश्मि’ इसके अपवाद रहे हैं। स्नेह रश्मि जी भारतीय भाषाओं में हाइकु लिखने वालों में सबसे वरिष्ठ और सबसे पहले कवि हैं‚ साथ ही उनकी पुस्तक ‘सन राइज ऑन स्नो पीक्स’ में उनके हाइकु एक साथ गुजराती‚ हिन्दी व अंग्रेजी में उपलब्ध हैं। स्नेह रश्मि जी के हिन्दी हाइकु इसी पुस्तक से लिए गए हैं‚ जो गुजराती से हिन्दी में डॉ० भगवत शरण अग्रवाल द्वारा अनूदित हैं।
संकलन की अपनी सीमाओं के कारण हिन्दी के कई ऐसे रचनाकार इसमें सम्मिलित नहीं हो पाये हैं जो सतत हाइकु सृजन में रत हैं। उन्हें आगे किसी संकलन में सम्मिलित किया जायेगा।
संकलन का लगभग पूरा कार्य जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय‚ नई दिल्ली के जापानी भाषा विभाग के प्रोफेसर एवं अध्यक्ष डॉ० सत्यभूषण वर्मा के संरक्षण में उनके ही सहयोग और परामर्श से सम्पन्न हुआ है। हाइकु–व्यक्तित्व डॉ० वर्मा की इस उदारता के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए हमारे पास शब्द नहीं हैं। संकलन के लिए भूमिका लिखने का गुरुत्तर दायित्त्व वहन करके उन्होंने हमारे ऊपर एक और कृपा की है।
संकलन के प्रकाशन के सम्बन्ध में डॉ० भक्त दर्शन‚ कार्यकारी उपाध्यक्ष‚ उ०प्र० हिन्दी संस्थान, प्रसिद्ध बाल साहित्यकार श्री निरंकार देव सेवक, श्री शंकर सुल्तानपुरी, कवि समालोचक डॉ० रामप्रसाद मिश्र‚ व्यंग्यकार–कथाकार डॉ० दामोदर दत्त दीक्षित एवं अग्रज साहित्यकार श्री कौशलेन्द्र पाण्डेय के स्नेहाशीष के लिए हम अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं।
संकलन में सम्मिलित सभी रचनाकारों ने अपने हाइकु देने के साथ–साथ प्रकाशनादि के बारे में भी समय–समय पर अपने सुझाव दिए‚ उन सभी के प्रति हम आभार व्यक्त करते हैं।
रायबरेली की साहित्यिक मित्र मण्डली के प्रति हम विशेष रुचि दिखाई‚ उनमें से ‘कादम्बनी’ के उपसंपादक श्री धनंजय सिंह का स्मरण न करना कृतध्नता होगी। संकलन की सम्पूर्ण पाण्डुलिपि के वे प्रथम पाठक रहे और इस रूप में उसकी सम्मतियों ने हमारा आगे का रास्ता यथासम्भव सुगम बनाया।
संकलन में रचनाकारों का क्रम उनके नामों के वर्णक्रम के अनुसार दिया गया है।
और अन्त में हम प्रकाशक श्री भूपाल सूद समेत उन सभी शुभेच्छुओं के प्रति समन्वित रूप से आभार प्रकट करते हैं‚ जिन्होंने किसी भी रूप में इस पुण्य–आयोजन में हमें सहयोग दिया है।
कृति पर आप सभी की बेबाक टिप्पणी और सम्मति हमारी आगामी योजनाओं की दिशा तय करने में सहायक होगी‚ अस्तु हमें आपके सुझावों की उत्सुकता से प्रतीक्षा रहेगी।
नववर्ष 1989
–कमलेश भट्ट कमल
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