14 April 2014

अन्तिम १२ घंटे

[ डा० सत्यभूषण वर्मा के अन्तिम समय का संस्मरणात्मक दस्तावेज जिसे उनकी जीवन संगिनी श्रीमती सुरक्षा वर्मा ने लिखा है। (हाइकु दर्पण, अंक-6 से साभार) ]

-सुरक्षा वर्मा

आज उन्हें साहित्य सम्मेलन में भाग लेने जाना था। कल 12 जनवरी सायं के 7 बजे जब वे घर लौटे तो उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्त्व में कुछ विलक्षणता का आभास था। 
 शारीरिक थकान्‚ श्वास फूलना‚ परन्तु चेहरे की आभा का एक अद्भुत मिश्रण था। सारे दिन क्या हुआ‚ क्या किया‚ समय कैसे व्यतीत हुआ? इसकी चर्चा तो हमारी प्रायः प्रतिदिन होती ही रहती थी‚ परन्तु आज की चर्चा में वे कुछ और उगल देना चाहते थे। जीवन की समस्त संजोई हुई इच्छाएं‚ आकांक्षाएँ‚ संकल्प‚ मानव–पीड़ा‚ मानवता तथा महान भारत के स्वप्न का सम्मिश्रण झलक रहा था। आकांक्षाएँ‚ उन्नति‚ धर्म‚ कूट–नीति‚ भारत एवं विदेशी राजनीति और आर्थिक सम्बंधों की चर्चा प्रारम्भ कर दी। इस समस्त चर्चा से उनकी आन्तरिक उद्विग्नता का आभास होने लगा था। अकस्मात न जाने क्यों उनका ध्यान दार्शनिकता की ओर चल पड़ा। ऐसा लगता था मानो वे किसी गहन समस्या का समाधान खोज रहे हों तथा तुरन्त किसी निष्कर्ष पर पहुँचना चाहते हों। उनका यह रूप मैंने पहले कभी नहीं देखा था। वे तो चिंतन तथा संवेदना का साकार रूप थे। मैं भीतर ही भीतर चिन्तित हो उठी। एक ओर इतनी प्रकाष्ठा की झलक तथा दूसरे ही क्षण उदासीनता की छाया उनके चेहरे पर दिखाई देने लगी। रात्रि के 11 बज चुके थे। श्वास अधिक फूलने लगा था। उनका ध्यान बटोरने के लिए मैंने शतरंज का सहारा लिया। गिट्टियों को अपने–अपने स्थान पर लगा दिया। मेरे इस व्यवहार को देख कुछ मुस्कुरा दिए। मैं भी दो शब्द कहने से चूक न पाई। तुरन्त मुख से शब्द निकल पड़े “हमारी दिनचर्या तो इसके बिना अधूरी ही रह जायगी न ?  देखो घड़ी साढ़े 11 बजा रही है।”  मैं प्रायः शतरंज में उनके पीछे रह जाती थी‚ परन्तु न जाने क्यों उन्होंने आज विजय की पताका मेरे हाथ थमा दी। रात्रि के 12 बज चुके थे। उनकी मानसिक तथा शारीरिक अवस्था को देख मैंने उनसे आग्रह किया कि विश्राम कर लें‚ प्रातः उन्हें सम्मेलन में जाना है। सिर थपथपा कर निद्रा की गोद में उन्हें विश्राम करवा दिया तथा स्वयं भी सोने का नाटक करने लगी। परन्तु मेरा आन्तरिक द्वंद्व मुझे चैन नहीं लेने दे रहा था। उनकी हर बात को गहनता से जितनी भी अधिक‚ झकझोरने का प्रयास करती वह उलझती जाती। न जाने कब आँख लग गई। परन्तु 2 बजे एकाएक मेरा ध्यान इनकी ओर गया। देखकर आश्चर्यचकित रह गई। यह अपने ऑफिस में कम्प्यूटर पर व्यस्त हैं। फिर वही प्रश्नचिह्न मेरे समक्ष खड़ा हो गया। अन्ततः क्या? कौन– सी बेचैनी उन्हें यह सब कुछ करने को बाध्य कर रही है। क्या किसी व्यक्ति ने आज साहित्य–सम्मेलन में इस वस्तु का बोध उन्हें करवाया था कि इन समस्त समस्याओं के समाधान का कारक केवल वही हों। जब मैं इन प्रश्नों से जूझ रही थी कि एकाएक कृष्ण के रूप में इनका चेहरा मेरे समक्ष आकर खड़ा हो जाता है। आभा तथा मुस्कान का सम्मिश्रण मेरी अबोध बुद्धि कुछ न समझ पाई। ऐसा लगता था मानो कि वे इस महान महायुद्ध के ज्ञाता तथा क्राता यही हो। बहुत ही उलझन में मैं पड़ गई। तुरन्त ही अपनी शय्या को त्याग इनके सम्मुख जा खड़ी हुई तथा झुंझला कर प्रश्नों की बौछार लगा दी। वे मौन रह कर मुस्कराते रहे। मेरी खीझ चर्म सीमा को छूने ही वाली थी कि एकाएक वह उठे तथा मुस्कान भरे शब्दों में कहा चलो आराम करते हैं। नींद नहीं आ रही थी सोचा कुछ लिख डालूं। जिस सहजता तथा सरलता से वे बोले कि मेरा समस्त रोष वहीं लुप्त हो गया। प्रातः के 4 बज चुके थे। कुछ थकान का अनुभव होने लगा था। पुनः शय्या का आश्रय ले लिया। इधर–उधर करवट लेते प्रातः 6 बज गए। शौच इत्यादि से निवृत हो पुनः चर्चा प्रारम्भ हो गई। उत्तर प्रतिउत्तर, सम्भवतः वे मुझसे ही समाधान की अपेक्षा चाह रहे हों। अन्ततः समस्त चर्चा का विषय जापान तथा भारत के सम्बंधों तक ही सीमित हो कर रह गई।   
 उनका यह विश्वास था कि यदि भारत स्वयं को पाश्चात्य देशों तक केन्द्रित न कर पूर्व की ओर झांकना प्रारम्भ कर दे तो सम्भवतः भारत एक महान शक्ति बन सकता है और मानव समाज के हित के लिए कुछ कर सकता है। उनके इस प्रश्न से मेरी जिज्ञासा और बढ़ती गई। एकाएक मेरे मन ने यह प्रश्न कर डाला कि जापान ही क्यों अन्य देश क्यों नहीं। तब तो मानो उन्हें कोई भोजन मिल गया हो। तत्काल उत्तर देने के लिए तत्पर हो गए। कह उठे “अबोध स्त्री ! क्या मेरे सम्पर्क में इतने वर्ष व्यतीत करने पर भी तुम मुझे समझ नहीं पाई हो। मेरा विश्लेषण कभी भी भावनात्मक नहीं होता है। मैंने जीवन भर अध्ययन किया है। यदि मुझे अन्य देशों में अधिक रहने का अवसर नहीं प्राप्त हुआ तो क्या उनके विचारों से अनभिज्ञ हूँ? क्या इतिहास नहीं बताता? हमारी सभ्यता संस्कृति‚ विचार‚ आदर्श ज्ञान का सृजन क्या वे देश कर पायेंगे? भौतिकवादियों का मापदण्ड़ तो केवल संहार है। जापान को मैंने बहुत निकटता से देखा है। जीवन का अधिक भाग मैंने वहाँ व्यतीत किया है। उसका बड़ी निकटता से अध्ययन किया है। उनकी परिस्थितियों को समझा है। उनके मूल तत्त्वों का विश्लेषण किया है। जब भी उनके मन्दिरों में गया तो मेरे सम्मुख अपने देवताओं का रूप ही दिखाई दिया। भले ही वे उन्हें भली प्रकार उस सांचे में न ढाल पाये हों। हिरोशिमा की पीड़ा अभी भी जीवित है। हमारा भारत शताब्दियों से जिन पीड़ाओं को सहजता से स्वीकार कर रहा है‚ जापान में वे पीड़ाएं क्रियात्मक रूप से ढल कर अधिक समय तक पल्लिवत नहीं हो पाईं कारण कि उन देशवासियों ने उसका सकारात्मक रूप देकर उनको पनपने नहीं दिया। आक्रामक रूप अपनाकर उन पर विजय पताका लहरा दिया। युद्ध के शब्द से उन्हें घृणा है। धार्मिक रूप से भी वे भारत के बहुत  निकट हैं। वे प्रकृति के उपासक हैं। जन्म को प्रकृति की देन स्वीकार करते हैं। इसे वे “शिन्तो” कह देते हैं तथा प्रकृति की पूजा करते हैं। भारत का मूल आधार तो प्रकृति ही है। अहिंसा के वे पुजारी हैं इसी कारण मूलतः समस्त बुद्ध धर्म के अनुयायी हैं। समय के बदलाव के कारण ईसाई धर्म ने भी अपना स्थान ले लिया है। पूर्व में और कौन–सा ऐसा देश है जो भारत के साथ मिलकर मानव हित के लिए सोच पाएगा। 
 यही चर्चा चल ही रही थी कि हमारे मित्र चाय के लिए आ गए। प्रायः प्रथम दिनचर्या इन मित्रों के संग विचारों के आदान–प्रदान से ही प्रारम्भ होती है। उनके आते ही इनके चेहरे का रंग खिल उठा। ऐसा लगा मानो उन्हें कोई कुबेर के धन की चाबी मिल गई हो। औपचारिकता के उपरान्त वे तुरन्त उठे और ऑफिस की ओर चल दिए। कुछ क्षण पश्चात् उन्होंने सुनामी पर लिखी कविता को सुना डाला। यह उनकी अन्तिम लेखनी थी। जो रात को लिखी थी। उनके जाने के तुरन्त पश्चात् उनके मुख से यह शब्द निकल पड़े कि वे उचिदा जी तथा जॉर्ज फर्नांडीस जी को तुरन्त टेलिफोन पर अपने विचारों से अवगत कराएंगे। समय कम है‚ मुझे शीघ्र पहुंचना है। उनके इन शब्दों को उस समय समझ न पाई। मुझे कहा कि मैं शीघ्र ही स्नान इत्यादि से निवृत्त हो जाऊँ‚ क्योंकि फिर उन्हें जाना है। रात्रि से उनकी उद्विग्नता का कारण सम्भवतः अनुभूति ही हो। जिसका बोध मुझे नहीं होने दिया। 

कुछ समय पश्चात् सब कुछ समाप्त हो गया और मैं किंकर्तव्यविमूढ़ उनको देखती ही रह गई। विधि के विधान की कैसी यह विडम्बना है। कितना महान था उनका व्यक्तित्त्व। जब भी कभी उनके व्यक्तित्त्व का विश्लेषण करने का प्रयत्न करती हूँ तो न जाने कैसे और क्यों वे अनेक रूपों में मेरे सम्मुख आकर खड़े हो जाते हैं तथा मेरी अबोध बुद्धि किसी भी छोर तक पहँुचने में असमर्थ हो जाती है। एक ओर उनका विशाल‚ निष्कपट‚ निश्छल‚ दृढ़संकल्प‚ निष्ठता‚ दया मेरी अंतरात्मा को छूने लगती है और दूसरी ओर उनका पौरुष‚ स्वाभिमान मुस्कराने लगता है। सांसारिक बन्धनों तथा सामाजिक परंपराओं से बिल्कुल विमुख एवं विलग। ऐसा लगता है कि मानो उन्होंने अपने को तथा मुझे दो विभिन्न क्षेत्रों में बाँट कर रख दिया हो। समाज के रीति–रिवाजों तथा सांसारिक व्यवहार की डोर मुझे थमा दी हो तथा स्वयं इन बन्धनों से विमुख हो अपनी कोई राह खोज ली हो। जब भी मैं उनकी गहराइयों में डूबने का प्रयत्न करती तो वे बहिर्मुखी होकर खड़े हो जाते। जब भी मैं उन्हें नास्तिकता का जामा पहनाने का प्रयत्न करती तो उनकी विशाल काया मेरे सम्मुख नृत्य कर उठती ऐसा लगता हो मानो वे धर्म ग्रंथ के स्वयं संचालक हो। उत्तर तथा प्रतिउत्तर में अनेक किंवंदतियों से मेरी जिज्ञासा की पूर्ति कर डालते। जब भी टी०वी० चैनल पर आस्था तथा संस्कार को देखती तो आक्रोश में अपनी आन्तरिक झुंझलाहट का क्रोध कई शब्दों में कर डालते। तुरन्त उनके मुख से एक आह भरे शब्दों में यह वाक्य निकल आते “कैसा है यह ज्ञान‚ धर्म तथा संस्कृति का उपहास। अपने दायित्व से क्यों वंचित हैं यह लोग?” जब भी राजनीति की चर्चा होती तो तुरन्त निर्णायक एवं निष्पक्ष निर्णय दे डालते और दूसरे दिन पत्रिका तथा दैनिक अखबारों में उनके विचारों की चर्चा को देखती तो आश्चर्यचकित हो कर उनको निहारने लगती तथा जिज्ञासु हृदय उनसे यह प्रश्न कर डालता कि क्या तुम्हारी किसी राजनीतिज्ञ अथवा आलोचक से गत दिवस चर्चा हुई थी? वे मुस्कराते हुए उत्तर देते “अरे पगली ! तथ्यों तथा तत्त्वों को जानने के लिए तर्क तथा वितर्क के आधार पर ही स्थिति का विश्लेषण किया जाता है। किसी निर्णय पर पहुंचने से पूर्व स्थितिरूपी समुद्र में डूबने की आवश्यकता होती है। दार्शनिकता‚ धर्म‚ मानव–समाज‚ संस्कृति‚ राजनीति‚ कूटनीति इत्यादि को परखने का अटूट ज्ञान मानो उनमें संचित हो कर रह गया हो। 
 कला तथा प्रकृति के वे पुजारी तो थे ही वे। ऊंची पहाड़ियाँ‚ कंदराएं‚ समुद्र एवं दरिया की लहरों को देखते ही उनका मन उनके शिखर को छूने तथा गहराइयों में डूबने के लिए लालायित हो उठता था। फूजी पहाड़ तथा जमुना की किश्ती उनसे अछूती न रह पाई। तुरन्त उनका भावुक हृदय कुछ गुनगुनाने पर बाध्य हो जाता। प्रकृति तथा नारी की सुन्दरता का भी उनका अपना ही मापदण्ड था। उनको टटोलने के लिए मैं प्रायः चुटकी लेने से पीछे न रहती। कह देती “आपकी जापानी गोपियाँ बहुत सुन्दर हैं।”  झट मुस्कुरा कर कह देते “मूर्ख स्त्री ! सुन्दरता का मापदण्ड केवल श्वेत–वर्ण नहीं है। नारी की सुन्दरता का कुछ और ही मूल्य है। जिस नारी का आकर्षण पुरुष को पागल न कर दे तथा उसकी मधुर वाणी इन्द्रियों को झकझोर न दे तथा पुरुष की पाशविक प्रवृत्तियों को अपनी ज्वाला से भस्म न कर दे वह नारी सुन्दर कैसे हो सकती है?” बुद्धि तथा भावना का अद्भुत सम्मिश्रण। कितने पारखी थे वे। बहुत ही विलक्षण था उनका चरित्र तथा व्यक्तित्त्व। 
 उनके अन्तः स्थल के जिस भी छोर में डूबने का प्रयत्न करती हूँ वहीं स्वयं को असमर्थ‚ निःसहाय तथा अधूरा पाती हूँ। एक दिन अपनी जिज्ञासा रूपी पिपासा को तृप्त करने के लिए मैंने यह प्रश्न कर ही डाला मुझे बताओ आखिर तुम कौन हो और क्या हो? मुस्कराते हुर बड़ी सहजता से कह उठे प्रिय तुम मुझ में और मैं तुम में। फिर यह परिचय कैसा। मुझे किसी प्रकार की परिभाषा का जामा न पहनाओ। भूमण्डल तथा भूखण्ड में स्वतंत्रता से विचरने दो। न जाने कौन–सा जुनून था जो उन्हें अपने स्वास्थ्य तथा विश्राम की चिन्ता से विमुख कर आगे बढ़ने के लिए बाघ्य कर रहा था। समाज से बिल्कुल विलग‚ अपनी ही धुन में खोए रहने वाले ज्ञान के पिपासक। समस्त ज्ञान को अर्जित कर किसी निर्णय पर पहुंचना चाहते थे। वास्तविक रूप में उन्हें जिज्ञासु कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी।

-सुरक्षा वर्मा
            

1 comment:

विभा रानी श्रीवास्तव said...

साझा के लिए शुक्रिया