29 April 2011

हाइकु क्या है- प्रो० सत्यभूषण वर्मा

[ 5 मार्च 2004 को होशंगाबाद (म0प्र0),  में आयोजित  ‘हाइकु समारोह’  में मुख्य अतिथि के रूप में प्रो० सत्यभूषण वर्मा द्वारा दिये गये भाषण का एक अंश ]


बात हाइकु की चल रही है। कमलेश जी ने अभी कहा कि हाइकु की गोष्ठी में गज़ल कहां से आयेगी। बहुत पहले मैंने अपनी किताब में हाइकु की चर्चा करते हुए लिखा था कि गज़ल का हर शेर एक हाइकु ही तो है। और कमलेश जी की गज़लों का हर शेर सचमुच आत्मा से हाइकु था। भले ही रूप में थोड़ा हाइकु के 5–7–5 के बंधन में नहीं था। रही बंधन की बात। मैं शर्मा जी की बात लेता हूँ। उन्होंने कहा कि वे साहित्य को नहीं समझते और उसके बाद उन्होंने हाइकु के बंधन को लेकर कविता पर जो टिप्पणी की‚ मुझे लगा कि उन्होंने हिन्दी में लिखने वाले सभी हाइकुकारों को हाइकु का एक सूत्र–वाक्य दे दिया है कि हाइकु कैसे लिखा जाना चाहिए। इससे अधिक साहित्य की समझ किसे कहते हैं। मैं शर्मा जी की बात से ही हाइकु पर अपनी बात कहूँगा। उन्होंने कहा‚ हाइकु 5–7–5 के बंधन में बंधी हुई एक कविता है और फिर उन्होंने प्रश्न उठाया कि क्या कविता बंधन के अन्दर बंध कर लिखी जा सकती है? बहुत बड़ी बात कह दी है उन्होंने। मुझे चीन की एक कथा याद आ गयी चीन में लड़कियों के छोटे पैर सुन्दरता की माप माने जाते हैं। सुन्दरता के मापदण्ड हर देश पैदा होते ही उसके पाँव में लोहे के जूते डाल देते थे कि पाँव बड़े न हों। उन लोहे के जूतों में बंधे हुए उस पाँव का क्या हाल होता होगा‚ बच्ची को कितनी यातना मिलती होगी‚ इसकी कल्पना कोई भी संवेदनशील व्यक्ति कर सकता है। हिन्दी में अधिकांश हाइकु जो लिखे जा रहे हैं‚ इसी प्रकार लिखे जा रहे हैं।
    शर्मा जी ने एक और बात कही कि कविता तो स्वतः प्रस्फुटित होती है। तुलसीदास जब रामचरित मानस लिख रहे थे तो मात्राओं की संख्या गिन–गिन कर चौपाई नहीं लिखते थे। और जब वह लिखते थे तो चौपाई में 16–16 मात्राएँ स्वयं आ जाती थीं। क्यों? उनके पास कहने के लिए मन की गहराइयों के अंदर सागर भरा हुआ था और वह सागर उमड़ता था‚ उनकी वाणी से निसृत होता था‚ प्रस्फुटित होता था और वह स्वयं अपने उस प्रस्फुटित होने के‚ निसृत होने के प्रवाह में एक रूप ले लेता था। और उस रूप को छंदशास्त्रियों‚ व्याकरणाचार्यो ने 16 मात्राओं की गणना से व्याख्यायित कर उसे चौपाई नाम  दिया। हाइकु 5–7–5 की गणना कर सायास रची गयी रचना नहीं है। हाइकु किसी वस्तु के प्रति‚ किसी विषय के प्रति‚ किसी भाव की अनुभूति के प्रति हमारे मन में जो तात्कालिक प्रतिक्रिया होती है‚ उसकी सहज अभिव्यक्ति की कविता है। और प्रतिक्रिया बहुत क्षणिक होती है‚ लम्बी नहीं होती। उस प्रतिक्रिया को लम्बा करता है हमारा सोच‚ हमारा चिंतन‚ हमारी कल्पना। कविता के विद्यार्थी जानते हैं‚ कविता के भाव पक्ष के तीन तत्व माने जाते हैं– भाव‚ कल्पना और चिन्तन। भाव तो एक क्षण में उभरता है मन में। भाव का क्षण बहुत छोटा होता है। उसके बाद उसमें कल्पना जुड़ती है‚ उसमें चिंतन समाता है मनुष्य का‚ व्यक्ति का और वह एक कविता को जन्म देता है। लेकिन अगर हम उस भाव के उस अनुभूत क्षण को पकड़ लें। उसकी मन में जो प्रतिक्रिया हुई है‚ उस प्रतिक्रिया को ज्यों का त्यों अगर व्यक्त करने का प्रयत्न करें तो वह दो–चार शब्दों में ही समा जायेगा। उसके लिये बहुत लम्बी कविता की आवश्यकता नहीं होती।वह जो भाव की प्रतिक्रिया है मन के अन्दर‚ उसको शब्दों में अभिव्यक्त करने की जो हमारे अन्दर एक तड़प उठती है‚ वह तड़प जब एक रूप लेती है तो बहुत थोड़े शब्दों में हम वह सब कह जाते हैं जो हमारे मन के अन्दर प्रस्फुटित होता है। हाइकु वह है। और क्योंकि अनुभूति की गहराई का वह क्षण बहुत छोटा होता है इसलिए हमारी अभिव्यक्ति का आकार जो है वह 5–7–5 से आगे नहीं बढ़ पाता है। तो 5–7–5 हाइकु का कलेवर है। हाइकु के वस्त्र हैं। वस्त्र हमारे सम्पूर्ण व्यक्तित्व के‚ शरीर के माप के अनुसार बनाये जाते हैं‚ शरीर को काट–छाँट कर वस्त्रों के अनुसार नहीं ढाला जाता है। हाइकु 5–7–5 में बंधी हुई रचना नहीं है। हाइकु वह है जो 5–7–5 के अन्दर कह दिया गया है।
    हाइकु का सबसे बड़ा कवि है - ‘बाशो’। आज हाइकु विश्व–कविता बन चुकी है। इसका मूल उद्गम जापान से है। आज विश्व की सभी महत्वपूर्ण भाषाओं में हाइकु लिखे जा रहे हैं। विश्व में जहाँ कहीं भी हाइकु की चर्चा हुई है और जहाँ हाइकु की चर्चा होती है‚ ‘बाशो’ का नाम सबसे पहले आता है। हाइकु जैसी अधिकांश रचनाएँ आज हिन्दी में हाइकु के नाम से रची  जा रही हैं। एक उदाहरण है बाशो से पहले की रचना का 5–7–5 में कविता जापानी में है। हिन्दी में उसका अर्थ होगा–
“चाँद को हत्था लगा दिया जाये तो पंखा बन जायेगा।”
    जापानी पंखे आप देखें तो एक डण्डी होती है और एक गोला–सा होता है और वह जापानी पंखा होता है। कहीं शायद आपने चित्रों में या और कहीं देखे होगें ऐसे पंखे। तो कवि चाँद को देखता है और कल्पना करता है। हत्थे की कमी है। चाँद को हत्था लगा दिया जाये तो बन जायेगा पंखा। कविता कहाँ है इसमें। हाँ‚ 5–7–5 में बाँध कर कह दिया गया है इसे।
    बाशो पहला व्यक्ति था जिसने हाइकु को वह रूप दिया कि उसे काव्य रूप में जापानी साहित्य में मान्यता प्राप्त हुई।और हाइकु जापानी साहित्य की एक सबल काव्य–धारा बन गया। आज 21 वीं शताब्दी में काव्य का‚ साहित्य का प्रवाह महासागर का रूप ले चुका है। आज पूरे विश्व की कविता का प्रभाव‚ पूरे विश्व के साहित्य का प्रभाव संसार के हर देश की कविता और साहित्य पर पड़ता है. जापान में भी आज आधुनिक कविताएँ लिखी जा रहीं है। जापानी कविता पर आज पश्चिम का प्रभाव है‚ चीन का प्रभाव है‚ भारत के संस्कृत और पालि साहित्य का प्रभाव जापानी साहित्य पर पड़ा है क्योंकि जापान में सैकड़ों वर्ष बौद्ध धर्म के माध्यम से भारतीय साहित्य का न केवल अध्ययन–मनन किया जाता रहा है बल्कि अनुवाद भी जापानी में होते रहे हैं। प्राचीन भारतीय साहित्य के लगभग सभी महत्वपूर्ण महान ग्रंथों का जापानी में अनुवाद मिलता है। उन ग्रंथों ने जापान के मानस का निर्माण किया है‚ जापान की संस्कृति का निर्माण किया है‚ जापान के संस्कारों को एक रूप दिया है। लेकिन इन सारे परिवर्तनों के बाद भी हाइकु आज भी जापान की एक लोकप्रिय धारा के रूप में प्रवाहित है अपने उसी रूप में जिसको बाशो ने आरम्भ किया था। बाशो की ही एक बहुत ही प्रसिद्ध कविता है जापानी में—
    कारे एदा नि   
    कारसु नो तोमारिकेरि   
    आकि नो कुरे।
ज़रा गिनती कीजिए। हम लोग 5–7–5 में बाँध कर हाइकु की रचना करते हैं। इसकी गिनती कीजिए। यह हाइकु के सबसे प्रसिद्ध‚ सबसे महान‚ हाइकु के विश्वविख्यात कवि ‘बाशो’ की एक बहुत प्रसिद्ध रचना है जिसके अनुवाद हिन्दी में ही नहीं‚ संसार की लगभग हर महत्वपूर्ण भाषा में हो चुके हैं। हिन्दी में अज्ञेय ने इसका अनुवाद किया है—
सूखी डाली पर्
काक एक एकाकी
साँझ पतझड़ की।

और इसकी‚ मूल कविता की जरा वर्ण–गणना कीजिए–
 का‚ रे‚ ए‚ दा‚ नि ह्य5हृ
 का‚ रा‚ सु‚ नो‚ तो‚ मा‚ रि‚ के‚ रि‚ ह्य, हृ
 आ‚ कि‚ नो‚ कु‚ रे ह्य5हृ
ये तो 5–9–5 हो गये। तो 5–7–5 का बंधन है‚ वह तो खुद बाशो ने ही तोड़ दिया। तो इससे क्या निष्कर्ष निकलता है? वस्तु के रूप से जो कथ्य है‚ जो भाव है‚ वह अधिक महत्वपूर्ण है और अगर वह 5–7–5 के रूप में प्रस्फुटित होता है तो सोने पर सुहागा। ऐसी स्वतः प्रस्फुटित रचना‚ स्वतः निसृत शब्द–बंध‚ हृदय से निकली हुई कविता अपने आप अपना रूप आकार ले लेती है। तो हाइकु की पहली शर्त है वह हृदय से निकला होना चाहिए। वह सायास रचना नहीं होनी चाहिए। पहले से निष्कर्ष निकाल कर कि हमने 5–7–5 के अन्दर ही कुछ कहना है‚ उससे हाइकु नहीं बनेगा।
एक गद्य–वाक्य को सायास 5–7–5 के तीन टुकड़ों बाँट कर यह कर देना कि देखिए मेरे अन्दर कितनी रचना–सामथ्र्य है। मैं इतनी बड़ी बात को केवल 17 अक्षरों के अन्दर बाँध कर रख सकता हूँ। मैं हाइकुकार हो गया हूँ। किसी पुरानी कहावत‚ किसी पुराने मुहावरे‚ भारतीय दर्शन के घिसे पिटे शिक्षित–अशिक्षित हर एक के मुँह पर चढ़े हुए किसी पुराने सूत्र को 5–7–5 के वर्णों में बाँध कर यह कह देना कि मैंने भारतीय दर्शन के सार को 5–7–5 के 17 अक्षरों  में  निचोड़ कर रख दिया है‚ वह हाइकु नहीं है।उसको आप अन्य कुछ भी कह सकते हैं। मैं इसको शब्द की साधना भी कह सकता हूँ। हमारे संस्कृत साहित्य में तो छंद–शास्त्र का इतना विविध‚ विशाल सागर है कि कविता का कोई भी रूप कहीं न कहीं उन छंदो के अन्दर कहीं न कहीं फिट हो जाता है।
    हमारे दिल्ली विश्विद्यालय के बहुत प्रसिद्ध अध्यापक विद्वान थे हिन्दी के डॉ0जगदीश कुमार। उन्होंने अथाह शोध के बाद एक किताब लिखी थी‚ ‘विश्व साहित्य की चेतना’ या कुछ ऐसा ही नाम था ‘विश्व कविता की खोज’। शायद यही नाम था। उन दिनों हाइकु की चर्चा भी बहुत थी।और उन्होंने एकदम निर्णय दे दिया कि हाइकु गायत्री मंत्र से उद्भूत है। मैं उन दिनों जोधपुर विश्वविद्यालय में हिन्दी का अध्यापक था। जब वह किताब मेरे हाथ में आई तब मैं दिल्ली में आ चुका था।मैंने उनको पत्र लिखा। मैंने पूछा‚ आपने यह किस आधार पर लिखा है कि हाइकु गायत्री मंत्र से उद्भूत है। मै हिन्दी का अध्यापक रहा हूँ। जापानी साहित्य का विद्यार्थी हूँ।बाद में मुझे भारत में जापानी साहित्य का पहला प्रोफेसर होने का सम्मान प्राप्त हुआ जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय जैसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में। तो मैंने उनको बहुत विनम्र शब्दों में लिखा कि मैं यह समझ नहीं पाया हूँ कि आपने हाइकु के उद्गम को गायत्री मंत्र से कैसे निकाल लिया। बहुत रोचक उत्तर मिला मुझे। उन्होंने लिखा‚ बन्धु मैंने अपने शोध में न जाने कितने ग्रंथों का अध्ययन किया है। यह निष्कर्ष मैंने कहाँ से निकाला‚ किस आधार पर मैंने यह स्थापना की‚ आज मुझे याद नहीं है।
    इतनी बड़ी बात वे कह गये और उन्हें याद ही नहीं है। तो उन्होंने शोध क्या की ? ऐसी शोधें भी हमारे विद्वानों द्वारा होती हैं। तो कहने का तात्पर्य यह है कि हाइकु की पहली शर्त है कि मन के अन्दर किसी भाव को अनुभूत कर‚ किसी भावानुभूति की जो तात्कालिक प्रतिक्रिया हमारे भीतर होती है या किसी सुन्दर दृश्य को देखकर–वह एक सुंदर फूल हो सकता है‚ वह नर्मदा नदी के प्रवाह के अन्दर उठती हुई एक चपल लहर हो सकती है‚ आकाश में अचानक डूबते सूर्य की एक झलक हो सकती है–उस एक क्षण की‚ एक झलक की प्रतिक्रिया हमारे संवेदनशील मन के अन्दर होती है जो हमारी सौंदर्य–चेतना को तत्काल झकझोर देती है। मन इस अनुभूति को अभिव्यक्त करने के लिये व्याकुल हो उठता है। तब हमारे मन से जो निकलता है‚ वह हाइकु  है।

--प्रोफेसर सत्यभूषण वर्मा

6 comments:

सारिका मुकेश said...

आपका ब्लॉग शायद आज पहली बार ही देखा; ऐसा लगा जैसे किसी हिंदी हाइकू व्याख्यान कक्षा में पहुँच गए हों! बहुत अच्छी जानकारी भरा एक सार्थक लेख!
हार्दिक बधाई और धन्यवाद!
सादर/सप्रेम
सारिका मुकेश

सारिका मुकेश said...
This comment has been removed by the author.
Unknown said...

बहुत उपयोगी जानकारी हाइकु के संदर्भ मे

manju sharma said...

हिंदी हाइकू के संदर्भ मे बहुत अच्छी और उपयोगी जानकारी भरा एक सार्थक लेख..........
सादर ,... मँजु शर्मा

संतुलन said...

पिछले करीब 8 साल से हाइकु से हाइकुकार के रूप में मेरा सम्बंध है, लेकिन सत्यभूषण वर्मा जी का हाइकु पर यह आलेख न केवल बहुत सार्थक है बल्कि श्रेष्ठ हाइकु लेखन के कई सूत्र भी इसमें हैं. डा.वीरेन्द्र आज़म, सहारनपुर

सन्ध्या गोयल सुगम्या said...

जानकारी के लिये धन्यवाद